Saturday, August 30, 2008

तू हिंदू मैं मुसलमा, मैं हिंदू तू मुसलमा

म्यान में तक्शीम हो चुकी तलवारे एक बार फ़िर बाहर निकल आई है । हर जगह दहसत गर्दी आलम है । कई घर के लाल कब्रों में दफ़न हो रहे हैं , तो कई शमशानों में जल रहे हैं । मानवता दफन हो रही है ,इन चंद जालिम लोगों के फरमान से .मजहबी दीवारें खड़ी हो गई है। हर इंसान का अपना कोई वजूद न रहा वो सिमट के रह गया इन जज्बाती मजहबी समूहों मैं । गले मिलने की रश्म आज खाकसार हो रही है। आज सिर्फ़ बाकी रह गया तो तू हिंदू मैं मुसलमा , मैं हिंदू तू मुसलमा। कहाँ छुट गए वो रश्मो रिवाज़ , वो रिश्ते , आज सब कुछ ख़त्म , खत्म और खाक हो रहा है । आज हमारे लिए वो रिश्ते वो आदावार्जी सब पीछे छुट गए हैं। आज भावनात्मक रूप से हम अपने धर्मों के लिए जंग लड़ने मैं व्यस्त हैं । इससे कुछ नहीं मिलेगा शायद नहीं ? हम सब जानते हैं , इतिहास गवाह है। पर फ़िर भी हम अनजान बनकर लदे जा रहे हैं। क्या आज से १००-१५० साल बाद आप जिन्दा रहोगे शायद कोई भी नहीं ? फ़िर क्यों हम अपनी भावी पीढी के लिए द्वेष का माहौल तैयार कर रहे हैं ।

आज जमू-कश्मीर जल रहा है । कोई भी एक इंच पीछे हटने को राजी नहीं। बम बिस्फोटों से कभी मुंबई ,कभी अहमदाबाद ,कभी बंगलुरु, तो कभी कोई और सहर जल रहा है। हर साल मजहबी दंगे भड़क रहे हैं। हम क्यों इन लाल सुर्ख ध्बों की होली खेल रहे हैं। क्यों हम इन आकाओं , गुरुओं के फरमान पर चल रहे हैं। क्या किसी धर्म मैं ये लिखा है की आप दूसरो के खून से होली खेल कर महान बन जाओगे, या अलाह, भगवान तुम पे खुश होकर मेहरबानी करेंगे; शायद कभी नहीं। क्योंकि किसी भी धर्म में ये नहीं लिखा है की बुरे कर्मों का फल अच्छा मिलता है।

तो फ़िर तुम अनजान बन कर क्यों इन राहों पे कांटे बो रहे हो ,तुम क्यों अपने वजूद से दूर हो रहे हो ,क्यों तुम्हे खून अपना पराया नजर आ रहा है। खून तो सबका लाल है। हर किसी के माँ- बाप ,भाई -बहन हैं। क्या तुम्हे हंसता - खेलता जीवन अच्छा नहीं लग रहा है।

इन सब सवालों के जवाब तलाशोगे ,तो शायद ये मजहबी दीवारे टूट जाए। हर कोई खुसहाल नजर आएगा । तब तुम्हे फ़िर से अपना वजूद नजर आएगा। और आपके कानो में एक आवाज हमेशा जिन्दा रहेगी- ------

''हिंदू-मुस्लिम ,सिख- इसाई आपस में है भाई -भाई ''