Thursday, October 23, 2008

व्यंग्य
(कैशोक्रेशी का दौर )
चचाजान बोले, बेटा जुम्मन आज ज़माना कित्ता बदल गया है। आज तो हर जगह कैशोक्रेसी का दौर है। जुम्मन बोला, चचाजान आपका दिमाग है या कम्पूटर कभी - कभी आप ऐसी गल करते हो की समझ ही नी आंदी। डेमोक्रेसी सुना , हिपोक्रेसी सुना, रस्साकस्सी सुना ; ये कैसोक्रेसी किस बला का नाम है। चचाजान बोले, जुम्मन बेटा ज्यादा दिमाग न लड़ाओ । इसका शुद्ध तात्पर्य है , जब नेता लोग अपनी सरकार बचाने के वास्ते हरे- हरे नोटों का खेल खेलते हैं, अपना काम निकालने के वास्ते लोग जब कर्मचारियों को नोटा ही नोटा से जेब भर देते हैं। तो यही तो कैशोक्रेसी है। देश मैं कहीं डेमोक्रेसी हो न हो पर कैशोक्रेसी तो हर जगह है। अपने पड़ोस के तिवारी जी को देख लो कैसे कैशोक्रेसी करते हैं। अभी-अभी हुए स्थानीय निकाय चुनाव में जीत का डंका बजा के लौटे हैं। जेब गरम थी। जो मजाल कोई सदस्य शक्ती परिक्षण में इधर से उधर खिसक जाए । संसद में देखा क्या हरे -हरे नोटों की गद्दीयाँ दिखायी दे रही थी। बेटा कई साल बाद देखा इत्ते नोट , मुह में पानी आ गया था । बेटा आज तो ये दौर है की किसी से काम लेना है तो "नोट दो काम लो " का नारा बुलंद करो। जुम्मन बोला, चचाजान मैंने सुना था की, अभी जो जिला पंचायत चुनाव हुए थे उसमे कई सदस्य अनपढ़ थे। जनता तो पढ़ी लिखी है क्या कोई भी पढ़ा लिखा उम्मीदवार खडा नहीं हुआ था ? चचाजान बोले , बेटा यही तो हमारे देश की खासियत है , किसी को भी जीता सकती है। जनता का मूड है , वो हमेशा सरप्राइज परफार्मेंस देती है। पढ़े - लिखे लोग बढ़ रहे है । देश के नेता जानते हैं की , ये हमारी भासा अनपढ़ जनता से ज्यादा जानते हैं । बस दो-चार नोट इधर , दो - चार उधर और हो गई नोट की रसाकस्सी । जो मजाल कोई वोट इधर से उधर दे दे । बेटा फ़िर न तो अनपढ़ दिखता है न कोई मर्डर मिसट्री वाला । सब जनता को अच्छे - भले लगते हैं।
अपना पप्पू बेटा , सिबू सोरेन भय्या कितने मजे कर रहे हैं। मैंने सुना है पप्पू बेटा की जेल में बड़ी आवाभगत हो रही है। उसने तो जेल में कैंटीन भी ले ली है। और सोच लिया है की , कैदी भाइयों को फाइव स्टार होटल से भी बढ़िया - बढ़िया पकवान खिलाऊगा ।
और सिबू सोरेन भइया कित्ती तरक्की में है। पहले कोयले में हाथ काले किए , फ़िर संसद में खूब केशोक्रेशी की मौजा लुटी और अब मुख्यमंत्री पद क्या बात है। सुनने में आया है रावन उनके कुलदेवता है। सिबू भैया खूब पूजा करते रहो तरक्की मिलती रहेगी ।
जुम्मन बेटा देखा केशोक्रेसी की पालिसी इसी में मजे हैं। अब तो जनता भी केशोक्रेसी को हाथों हाथ ले रही है । बेटा क्यों नही देश में डेमोक्रेसी की जगह केशोक्रेसी लागू कर दी जाय। जुम्मन बोला चचाजान का आइडिया बुरा नहीं है। तो जनता जी ऐसे ही केशोक्रेसी को आगे बढाते रहो आप भी खुश और नेता जी भी खुश।

Thursday, October 16, 2008

व्यंग्य
(मौजा ही मौजा)
मैं अपने चचाजान से मिलने मुंबई से दिल्ली आया। यूँ ही बातों का सिलसिला शुरू हुआ। चचाजान बोले , बेटा जुम्मन सिनेमा के दौर लद गए । अब यंही मडी हॉउस में डेरा दाल दो । आजकल तो टीवी पर जो दीखता है वही बिकता है। एक हमारा दौर था । जब सिनेमा हॉलों में सिल्वर जुबली ,गोल्डन जुबली मनाई जाती थी। पर आज तो लोग सिनेमा हॉलों को जाना भूल गए हैं। पायरेटेड सीडी का ज़माना आगया है। मैंने कहा , चचाजान आपकी बात तो सही है। लेकिन मुझ जैसे डाइरेक्टर के लिए यहाँ स्कोप बताओ ना। चचाजान बोले, जुम्मन बेटा यहाँ तो मैदान खाली है। हाकी की स्टिक लेकर कहीं भी स्कूप कर दो । क्या फर्क पड़ता है। हर जगह गोलपोस्ट ही गोलपोस्ट है। मैंने कहा चचाजान आपकी बात समझ में नही आ रही है, साफ़ साफ़ कहो। चचाजान बोले, जुम्मन बेटा आजकल अपने सलू मियाँ, राखी बिटिया , शाहरुख , बच्चन जी ,अक्की बेटा सभी तो टीवी पर शोज दिखा रहे हैं। कहीं रियल्टी शो चल रहे हैं, कहीं क्विज कांटेस्ट, कहीं सीरियल। कई सीरियल तो चलते ही जा रहे हैं। ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेते हैं। एकता बिटिया का सीरियल "सास भी कभी बहु थी" ख़त्म ही नी होंडा । जुम्मन बेटा पैसा ही पैसा है । पढ़े लिखे लोगों का ज़माना है। इस बहती गंगा में हाथ धो लो। चार बड़े - बड़े कलाकार पकड़ लो और जनता के सामने लड़वा दो । जनता खुश तो रियल्टी शो हिट । एकता बिटिया की तरह एक सीरियल बनादो " बहु भी किसी की बेटी है"। बेटा ये टाइटल मैंने बहुत दिनों से सोच रखा था । अब इस हिट करवादो । चार - पाँच बार बहु को मरवा दो । फ़िर अलग - अलग तरीके से जिंदा करवादो , दस - बारह शादी करवा दो । दो चार सांग भी रख दो । बेटा मजा आ जाएगा । सीरियल में कई जुबलियाँ हो जायेंगी सारी पिक्चर का औसत निकल जायेगा। या फ़िर कोई न्यूज़ चैनल बना डालो । चटकारी - पत्त्कारी ख़बरों से भर दो । लाईव टेलीकास्ट लो , कहीं भी पहुँच जाओ । गल्ली - मुहल्ले , टाइलेट , पेड़ कोई जगह मत छोड़ना । सबका टेलीकास्ट होना चाहिए । आख़िर खबरिया चैनल है। पल- पल की ख़बर होनी चाहिए । सब की ख़बर लो , दो चार पिक्चर के सीन भी रखो । तो मौजा ही मौजा । क्राइम रिपोर्ट और भाविस्यफल वाले पार्ट में हिन्दी पिक्चर की तरह क्लाइमेक्स देना मत भूलना । देश की जनता भावुक है। इनमे थोड़ा मसाला न हो तो मजा नहीं आता है। देखो धंधा फ़िर चल पड़ेगा ।
मुझे चचाजान की बातो में दम दिखाई दिया है। क्यों न टीवी की तरफ़ मूड लिया जाए । यहाँ तो मौजा ही मौजा है।

Thursday, October 9, 2008

व्यंग्य

(बाबू जी की बाबूगीरी )

आज देश में हलचल ज्यादा है। हर तरफ़ भागमदौड़ है। पर अपने बाबू साहेब तो ऐसे हैं की उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। उनकी तो मौजा ही मौजा है। देश के हर सरकारी दफ्तर में लोग उनसे मिलने यूँ आते हैं ; जैसे किसी मन्दिर में अपनी मन्नत के लिए चढावा देने आते हैं। उनकी अदाओं के आगे तो बड़ी-बड़ी हीरोइने भी फेल समझो। पुरानी पिक्चरों के गाने तो देखो । कई पिक्चरों के गानों में 'बाबू' शब्द ढूँढोगे तो जरुर मिल जायेगा। क्योंकि डायरेक्टर को पता होता था की 'बाबू' शब्द में कितना झोल है। आज के डायरेक्टर तो नालायक ठहरे । 'गांधीगीरी' बना डाली। पर एक 'बाबूगीरी ' नहीं बना पाए। कोई भी सरकारी काम हो हर फाइल उनकी टेबल से होकर गुजरती है। और बगैर उनके औटोग्राफ के आगे चली जाए , तौबा - तौबा । हर बड़ा आदमी ,हर पढ़ा-लिखा और हर गरीब उनके आशीर्वाद के बिना कैसे सफल हो सकता है। इसके महत्व को सब जानते हैं। तभी तो सब मत्था टेक कर और गुरुद्क्शीना दिए बिना आगे नहीं बढ़ते। जिसने चू - चपड की नहीं की उसका बेडा गर्क समझो । ये दूसरी दुनिया के लोग होते हैं , इनके आगे तो समझो किसी का वश नहीं। इनकी कारीगीरी का तोड़ तो शायद है ही नहीं है। हर्षद मेहता ,अब्दुल करीम तेलगी जैसे दिग्गज फेल हो गए , पर इनको कोई फेल नहीं कर पाया। जनता इनसे मिलने आती है तो 'बाबू' के साथ 'जी' लगाना नहीं भूलती है। क्योंकि 'बाबू' के साथ 'जी' लगाने से इसका वजन बढ़ता है। जनता को पता है की , अपने पिताजी के साथ जी लगाओ न लगाओ पर 'बाबूजी ' के साथ 'जी' लगाओ तो वे बड़े गौरवान्वित हो जाते हैं ।बाबू साहेब का सीना चौडा हो जाता है। अमेरिका के टावर गिरे या बम धमाके हो जाए या देश के शेयर लोट- पोत हो जाए पर अपने बाबू मोशाय तो ऐसे हैं की इनका शेयर मार्केट तो कभी गिरता ही नहीं वो तो चढ़ता ही रहता है।

सरकार के पास तो काम - वाम है नहीं एक फालतू का कानून 'सूचना का अधिकार ' बना डाला । दफ्तरों में कम्पूटर लगा दिए। बस फ़िर क्या बाबू साहेब आजकल थोड़ा चिंता में घिरे रहते हैं। उन्हें तो अपने आगे कूड़ा नजर आता है। उन्हें भविष्य की चिंता होने लगी है। क्या होगा हमारी भावी पीढी का, वो हमारी तरह मौजा ही मौजा में रहेंगे या नहीं। खैर ताजा समाचार यही है की वो भी अपने विरोधियों को पटखनी देने के वास्ते रिसर्च में जुट गए हैं। और उन्होंने एलान भी कर दिया है की हम गांगुली जी तरह इतनी जल्दी हार मानने वाले नहीं हैं। वो इस सीरिज के बाद खेल या न खेले हम तो खेलते रहेंगे । जब तक जनता जनार्दन हमें समर्थन देती रहे।

Thursday, October 2, 2008

"दिलों में खटास का दौर"

आज दुनिया जितनी तेजी से बदल रही है । उतना ही लोगों का दिल और दिमाग भी बदल रहा है । हमारे देश में एक ख़ास बात है। हर जगह महफिले सज जाती है। कभी पान की दुकान, कभी सड़कों,कभी होटलों तो कहीं आफिस में चार - पाँच लोग जमा हुए नही की हर घटना पर प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू। ऐसे ही एक आफिस में प्रतिक्रियाओं का दौर चल रहा था। पाकिस्तान में हुए बम धमाकों और हाल में भारत हुए धमाकों के बारे में । सबकी एक ही मिली जुली प्रतिक्रिया रही " ठीक ही तो है इस भीड़ में से दो चार और कम हो जायेंगे "

मैं दंग रह गया । शायद यह बदलते जमाने का नया संदेश है। आज लोगों के बीच बस एक बात रह गई है । " मैं और मेरे लोग " बाकी सब मरे - बचे किसी को किसी की फ़िक्र नहीं । ये वे लोग हैं जिन पर ये विपदा नहीं गुजरी है । ये वे लोग हैं जो बदलते जमाने का नया संदेश दे रहे हैं । एक पिक्चर आई है 'मुंबई मेरी जान' । मुंबई बम विश्फोतो पर आधारित इसमे जब एक दुर्घटना में एक पत्रकार एक पीड़ित व्यक्ति से यह पूछती है की आपको कैसा लगा अपने परिजनों को खोकर । फ़िर जब उसी पत्रकार जो अपने होने वाले पति को खो देती है बम विस्फोटो में , से ये सवाल पूछा जाता है तो तब उसे लगता है की ये सवाल क्या सही है या ग़लत है ।

तो कहने का मतलब है एक पीड़ित व्यक्ति का दर्द एक पीड़ित ही जानता है। वो क्या जाने जो मीलों दूर बैठ कर प्रतिक्रियाएं देते हैं। आज भोतिक्तावादी भुत ने हमें इस कदर जकड लिया है की हम किसी और के दुःख दर्दों में सरीक होना भूल चुके हैं। सामाजिक कार्यों में भाग लेना तो बहुत पुरानी बात हो चुकी है । इस आधुनिकता में आगे बढ़ने की होड़ ,पैसों की भूख ने हमारे वजूद को तहस नहस करके रख दिया है।

पैसों के बल पर दुनिया खरीदने वाले लोगों को ये पता नहीं की यहाँ हार ही हार है । क्योंकि सिकंदर , हिटलर जैसे लोग भी खाली-खाली ही लोटे थे। अगर लोगों से पूछा जाए की १३ वी - १४ वी शताब्दी के किसी धना सेठ का नाम बताओ तो वो बगल झाकने लगेंगे। लेकिन किसी संत के बारे में पूछे तो लोगों का जवाब तुंरत आएगा तुलसीदास जी ।आख़िर लोगों को ये कैसे याद है ,ये लोगों को इसलिए याद है की अच्छे विचार जो कभी दफ़न नहीं होते हमेशा फलते और फूलते ही हैं । और वे हमेशा एक पीढी से दूसरी पीढी और कई पीढियों तक सफर करते रहते हैं। लेकिन पैसों का खेल ऐसा है की आज राजा है तो कल रंक बन जाए, इसमे कोई संदेह नहीं है।

फ़िर क्यों हम इन रिश्तों में खटास पैदा कर रहे हैं। कल शायद हममें से कोई न हो ,हमें कौन याद रखेंगे। इसलिये क्यों न आज से ही कुछ मीठे-मीठे रिश्तों की शुरुआत करें । जो हमारे जाने के बाद भी हमारी यादों को मीठा-मीठा कर दे।

"बेचारा ---उत्तराखंड क्रिकेट "

आज अधिकांश राज्यों की क्रिकेट टीमे रणजी ट्राफी क्रिकेट में प्रतिनिधित्व कर रही है । ऐसे में उत्तराखंड राज्य की रणजी ट्राफी टीम का न होना राज्य के खेल प्रेमियों को हमेशा कचोटता रहता होगा। बी जे पी सरकार बड़े बड़े दावे करती है की राज्य की प्रतिभाओं को उचित अवसर मुहैया कराये जायेंगे। लेकिन सब खाक नजर आ रहा है। हमारे यहाँ प्रतिभाओं की कमी नहीं है। यहाँ की क्रिकेट प्रतिभाएं समय- समय पर दूसरे राज्यों की और पलायन करती रही है। इसका जीता जागता उदाहरण महेंद्र सिंह धोनी जैसे क्रिकेटर हैं। यहाँ की जनता जिनके दिलों में ख्वाब होता है। अपने बच्चों को एक अंतरास्तरीय क्रिकेटर बनाने का।इसके लिए वो धीरे- धीरे दूसरे राज्यों में पलायन करते रहे हैं। उत्तराखंड में कोचिंग क्लब खुले हैं। प्रतिभाएं दिन -रात मेहनत भी करती है।लेकिन क्या फायदा उनकी दिन-रात की मेहनत का जो उनको सिर्फ़ क्लब तक सिमट कर रख देती है।

क्योंकि भारतीय टीम में आपको अगर प्रतिनिधित्व करना है , तो पहले आपको रणजी क्रिकेट में प्रदर्शन करना होता है। तब जाकर आपके प्रदर्शन के बारे में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड सोचता है। माना की भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड एक नीजी संस्था है। सरकार के दिशा निर्देश यहाँ नहीं चलते । लेकिन राज्य सरकार की तरफ़ से एक कोशिश तो होनी चाहिए। उन्हें भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के समक्ष अपना पक्ष रखना चाहिए ,की हमें भी राज्य रणजी ट्राफी टीम का प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए । लेकिन न तो राज्य के मुख्यमंत्री जी और न ही खेल मंत्री जी को इसकी फ़िक्र है । खेलमंत्री जी तो केवल अपनी राजनितिक गतिविधियों में व्यस्त हैं। उन्होंने आज तक अन्य खेलों के लिए भी एक भी गंभीर प्रयास नहीं किए हैं। उन्होंने तो सुरेंदर भंडारी का नाम भी सुना हो या नहीं सुना हो । जिसने ओलंपिक खेलों में देश का प्रतिनिधित्व किया था। और जो लगातार देश- विदेश में अच्छा प्रदर्शन कर पदक जीत रहा है। क्योंकि अभी तक न तो इस खिलाड़ी को राज्य सरकार ने पुरस्कृत किया है और न ही इसकी हौसला अफजाई की है। सुन रहे हैं न मुख्यमंत्री जी और खेल मंत्री जी ।

कब तक हमारी प्रतिभाये यूँ ही मटियामेट होती रहेंगी । और कब तक हम यूँ ही दबे- दबे रहेंगे। हमें भी तो हक़ है आगे आने का और आगे बढ़ने का और अपनी चमक से दुनिया को सराबोर करना है।