औली सैफ विंटर गेम्स-२००९
( नई सुबह की सुगबुगाहट )
उत्तराखंड राज्य के चमोली जिले में स्थित औली। दूर-दूर तक बर्फ की चादरों से फैला हुआ यह स्थल देश-विदेश से आने वाले सैलानियों को अपने अप्रितम सौंदर्य से मोहित कर देता है। उत्तराखंड में औली स्कीईंग के लिए उपयुक्त स्थल है। इसी को मद्देनजर रखते हुए इसे २००९ सैफ विंटर गेम्स की मेजबानी का अवसर प्राप्त हुआ है.
इतिहास में पहली बार उत्तराखंड को इतने बड़े अंतरास्ट्रीय आयोजन की मेजबानी का अवसर प्राप्त हुआ है। और इस मौके को सफल आयोजन में तब्दील करना राज्य सरकार, चमोली जिले और जोशीमठ नगर इन तीनो के एकजुट प्रयासों पर निर्भर रहेगा।
तैयारियों को लेकर उठा विवाद अब कुछ हद तक थम चुका है। अब उलटी गिनतियों का दौर जारी है। और सबको मिलकर इसे सफल बनाने के प्रयास आरम्भ कर देने चाहिए। क्योंकि ये गेम्स उत्तराखंड राज्य के लिए एक मील का पत्थर साबित होने जा रहे हैं। एक सफल कदम, सफलता के सौ दरवाजे खोलेगा। ये गेम्स केवल गेम्स तक सिमट कर नहीं रह जायेगा। बल्कि यहाँ के लोगों को मौका होगा अपनी संस्कृति , अपने जज्बे और यहाँ के अप्रितम सौंदर्य को देश - विदेश से आने वाले लोगों को रूबरू कराने का। आठ साल के उत्तराखंड ने सफलता के नए आयाम रचे हैं और जारी है। उससे पहले हमारी स्थती दबे - कुचले इंसान जैसी थी। मुजफर नगर कांड ने साबित भी किया की उत्तर प्रदेश सरकार हमें किस श्रेणी में रखती है। लेकिन उस घटना ने लोगों को और मजबूती दी। और आज हमें साबित करना है की इन आठ सालों में हमने अपने स्तर में सुधार के जो आयाम रचे हैं उसकी गूंज पूरे देश और विदेश में जरुर फैलनी चाहिए।
एक कहावत है की " अवसर बार- बार आपके चौखट में दस्तक नहीं देते हैं।" ये वक्त है अपना सब कुछ झोकने का , अपने युवाओं को सफलता का एक मार्ग बनाने का।
नए साल की शुरुआत के बाद पूरे देश की निगाहें आप पर होंगी। और तब--------------- क्या होगा, कैसे होगा. ये बातें पुरानी हो जायेंगी। बस सामने एक मंजिल होगी। जिसका एक ग़लत कदम राज्य की प्रतिष्ठा और आपको कई नीचे खाइयों में धकेल सकता है। और एक सफल कदम मंजिल के सैकड़ों रास्तों की दास्ताँ लिखेगा।
" क्योंकि हममें माद्दा है, जूझने का , लड़ने का।
हमने खेला है इन नदियों की लहरों में, पहाडों की गोद में।
हमने देखा है, अपने घर के सामने के पहाड़ पर चढ़ कर।
कैसा लगता है बुलंदियों के सिखर परचढ़कर। "
तो फ़िर क्या, शुरू हो जाईये------ इतिहास में अपने आपको साबित करने के लिए।
Wednesday, September 24, 2008
Sunday, September 14, 2008
बिल्यर्डस - स्नूकर का बादशाह
(पंकज आडवानी )
टाइगर वूड्स ,माइकल जोर्डन ,स्टेफी ग्राफ ,रोजर फेडरर ये कुछ नाम हैं। जिन्होंने अपने- अपने खेलों में अपनी बादशाहत साबित की थी। इनके सामने इनके प्रतिध्न्धी बौने साबित होते थे और हैं। इन्ही के नक्शे कदम पर एक और सख्स चल पडा है । जिन्होंने स्नूकर और बिल्यर्डस दोनों में अपनी मास्टरी साबित कर दी है। वह सख्स है पंकज आडवानी। २४ जुलाई १९८५ को जन्मा यह सख्स दस साल की उम्र में स्नूकर क्लब जा पहुँचा और इसे टेबल और छडी का खेल इतना पसंद आया की एक के बाद एक रिकार्ड बनते चले गए । ये विचित्र संयोग की बात थी की १९९० से पहले ये पूरा परिवार कुवैत में रह रहा था । लेकिन संयोग देखिये १९९० में इराक़ ने कुवैत पर हमला बोला तो ये पूरा परिवार वहाँ से शिफ्ट होकर बेंगलोर में बस गया। १७ साल की उम्र में गीत सेठी का रिकार्ड तोड़कर सबसे कम उम्र में चैम्पीयन बने । २००३ में सबसे कम उम्र के युवा एशियाई बने जिन्होंने आईबीएसऍफ़ विश्व स्नूकर स्पर्धा जीती । २००४ में अर्जुन पुरस्कार और २००६ में राजीव गांधी खेल रत्न अवार्ड से इन्हे नवाजा गया । पिछले हफ्ते बेंगलोर में आयोजित ओनजीसी आईबीएसऍफ़ विश्व बिल्यर्डस खिताब ( अंक और समय दोनों फार्मेट ) दोहरी सफलता के साथ जीता ।इससे पहले २००५ में माल्टा में डबल वर्ल्ड बिलियर्ड्स खिताब ( अंक और समय )दोहरी सफलता के साथ जीता था । अभी तक इन्होने ६ वर्ल्ड खिताब और दो एशियाई बिल्यर्डस स्पर्धाये जीती है। दोहा एशियन गेम्स में देश के लिए सोने का तमगा जीतना इनके जीवन के गौरवपूरण क्षणों में से एक था । अभी जिन्दगी के सिर्फ़ २४ वसंत इन्होने देखे हैं। इतनी कम उम्र में इतना सम्मान प्राप्त करना और खिताबों की झडी लगाना वाकई इन्हे इस खेल का बादशाह साबित करती है ।
(पंकज आडवानी )
टाइगर वूड्स ,माइकल जोर्डन ,स्टेफी ग्राफ ,रोजर फेडरर ये कुछ नाम हैं। जिन्होंने अपने- अपने खेलों में अपनी बादशाहत साबित की थी। इनके सामने इनके प्रतिध्न्धी बौने साबित होते थे और हैं। इन्ही के नक्शे कदम पर एक और सख्स चल पडा है । जिन्होंने स्नूकर और बिल्यर्डस दोनों में अपनी मास्टरी साबित कर दी है। वह सख्स है पंकज आडवानी। २४ जुलाई १९८५ को जन्मा यह सख्स दस साल की उम्र में स्नूकर क्लब जा पहुँचा और इसे टेबल और छडी का खेल इतना पसंद आया की एक के बाद एक रिकार्ड बनते चले गए । ये विचित्र संयोग की बात थी की १९९० से पहले ये पूरा परिवार कुवैत में रह रहा था । लेकिन संयोग देखिये १९९० में इराक़ ने कुवैत पर हमला बोला तो ये पूरा परिवार वहाँ से शिफ्ट होकर बेंगलोर में बस गया। १७ साल की उम्र में गीत सेठी का रिकार्ड तोड़कर सबसे कम उम्र में चैम्पीयन बने । २००३ में सबसे कम उम्र के युवा एशियाई बने जिन्होंने आईबीएसऍफ़ विश्व स्नूकर स्पर्धा जीती । २००४ में अर्जुन पुरस्कार और २००६ में राजीव गांधी खेल रत्न अवार्ड से इन्हे नवाजा गया । पिछले हफ्ते बेंगलोर में आयोजित ओनजीसी आईबीएसऍफ़ विश्व बिल्यर्डस खिताब ( अंक और समय दोनों फार्मेट ) दोहरी सफलता के साथ जीता ।इससे पहले २००५ में माल्टा में डबल वर्ल्ड बिलियर्ड्स खिताब ( अंक और समय )दोहरी सफलता के साथ जीता था । अभी तक इन्होने ६ वर्ल्ड खिताब और दो एशियाई बिल्यर्डस स्पर्धाये जीती है। दोहा एशियन गेम्स में देश के लिए सोने का तमगा जीतना इनके जीवन के गौरवपूरण क्षणों में से एक था । अभी जिन्दगी के सिर्फ़ २४ वसंत इन्होने देखे हैं। इतनी कम उम्र में इतना सम्मान प्राप्त करना और खिताबों की झडी लगाना वाकई इन्हे इस खेल का बादशाह साबित करती है ।
Thursday, September 11, 2008
"निजी क्षेत्र के पीछे का सच "
निजी क्षेत्र जो इस समय नई बुलंदियों को छू रहा है। ऐसे में हर किसी का रुझान इस और है। युवाओं में भी इस का क्रेज है। इस क्षेत्र में सफलता, नाम और पैसा तीनो उपलब्ध है। लेकिन आपने इसके पीछे के दुसरे कटु सत्यों पर भी नजर डाली। शायद नहीं? यदि आप इसके पीछे के यथार्थ धरातल को देखे तो आप चोंके बिना नहीं रहोगे।
आज अगर हकीकत देखेंगे तो पायेंगे की इन निजी क्षेत्रों में योग्यता के आधार पर तो लोग चुने जा रहे हैं। लेकिन इन निजी क्षेत्रों में ही नौकरियों के लिए सिफारिश का चलन भी बढ़ता जा रहा है। और स्थति भयावह होती जा रही है। सिफारशी लोग जिनमे किसी का भाई, किसी के पापा, किसी के जीजा, किसी की बुवा------------------------------- ऐसे कई नाते - रिश्तेदार हैं । जो उच्च पदों पर है। वे लोग अपनी सिफारिश या दबदबे के बल पर अपने लोगों को शामिल कर लेते हैं। ऐसे में योग्य प्रतिभाएं धरी की धरी रह जाती हैं। जिनका न आगे न पीछे कोई सिफारशी गाडफादर है। वो लोग मुश्किल में पड़ जाते हैं। इंटरव्यू के लिय्रे जाते वक्त तो उनमे बड़ा उत्साह होता है। लेकिन इन्हे बेदखल कर दिया जाता है, बिना सिफारिश के। मतलब हर दामन पाक साफ़ नहीं है। दाग के छींटे कहीं न कहीं तो रहते हैं, क्योंकि ये कलयुग है। सब की तमना जवान होती है, वो चाहते हैं अच्छे रास्ते जहाँ वे मेहनत से हिला कर रख दे दुनिया को और चढ़ जाए सफलता की अनगिनत सीढियां पर। उनको यहाँ मिलती है तो जिल्लत । वो कहाँ से लाये सिफारशी प्रमाणपत्र । ऐसे में वो क्या करे? वो थके हारे रह जाते हैं। वो मजबूर हो जाते हैं। या तो वो जिन्दगी से समझौता कर लेते हैं या दबी हुई चिंगारी से एक आक्रोश का जनम होता है। जो ग़लत हाथों में पड़कर दुसरे तरीके ईजाद कर लेते हैं। और फ़िर कुछ बेरहम इंसानों के ग़लत फैसलों का फल सारी जनता को भुगतना पङता है। इन चिंगारियों का हस्र भी बुरा होता है। या तो वो पुलिस की गोलियों का निशाना बनते हैं। या फ़िर जेल उनका नया आशियाना बनती है।
निजी क्षेत्र जो इस समय नई बुलंदियों को छू रहा है। ऐसे में हर किसी का रुझान इस और है। युवाओं में भी इस का क्रेज है। इस क्षेत्र में सफलता, नाम और पैसा तीनो उपलब्ध है। लेकिन आपने इसके पीछे के दुसरे कटु सत्यों पर भी नजर डाली। शायद नहीं? यदि आप इसके पीछे के यथार्थ धरातल को देखे तो आप चोंके बिना नहीं रहोगे।
आज अगर हकीकत देखेंगे तो पायेंगे की इन निजी क्षेत्रों में योग्यता के आधार पर तो लोग चुने जा रहे हैं। लेकिन इन निजी क्षेत्रों में ही नौकरियों के लिए सिफारिश का चलन भी बढ़ता जा रहा है। और स्थति भयावह होती जा रही है। सिफारशी लोग जिनमे किसी का भाई, किसी के पापा, किसी के जीजा, किसी की बुवा------------------------------- ऐसे कई नाते - रिश्तेदार हैं । जो उच्च पदों पर है। वे लोग अपनी सिफारिश या दबदबे के बल पर अपने लोगों को शामिल कर लेते हैं। ऐसे में योग्य प्रतिभाएं धरी की धरी रह जाती हैं। जिनका न आगे न पीछे कोई सिफारशी गाडफादर है। वो लोग मुश्किल में पड़ जाते हैं। इंटरव्यू के लिय्रे जाते वक्त तो उनमे बड़ा उत्साह होता है। लेकिन इन्हे बेदखल कर दिया जाता है, बिना सिफारिश के। मतलब हर दामन पाक साफ़ नहीं है। दाग के छींटे कहीं न कहीं तो रहते हैं, क्योंकि ये कलयुग है। सब की तमना जवान होती है, वो चाहते हैं अच्छे रास्ते जहाँ वे मेहनत से हिला कर रख दे दुनिया को और चढ़ जाए सफलता की अनगिनत सीढियां पर। उनको यहाँ मिलती है तो जिल्लत । वो कहाँ से लाये सिफारशी प्रमाणपत्र । ऐसे में वो क्या करे? वो थके हारे रह जाते हैं। वो मजबूर हो जाते हैं। या तो वो जिन्दगी से समझौता कर लेते हैं या दबी हुई चिंगारी से एक आक्रोश का जनम होता है। जो ग़लत हाथों में पड़कर दुसरे तरीके ईजाद कर लेते हैं। और फ़िर कुछ बेरहम इंसानों के ग़लत फैसलों का फल सारी जनता को भुगतना पङता है। इन चिंगारियों का हस्र भी बुरा होता है। या तो वो पुलिस की गोलियों का निशाना बनते हैं। या फ़िर जेल उनका नया आशियाना बनती है।
आज ऐसे दफ़न होते लोगों को उबारने की जरूरत है। कौन इस सिस्टम में सुधार लाएगा शायद यह एक अबूझ पहेली है।
"बचपन प्यारा बचपन"
बचपन हर किसी का बचपन। यूँ समझो सपनो का आशियाना। सपनो की कोई सीमा नहीं,ये पुरे ब्रह्माण्ड तक चक्कर लगाती हैं। रेत के ढेर की मानिद जो हवा के झोंके के साथ कभी उस छोर तो कभी इस छोर चल पड़ती हैं। सपने कई रंगीनियों में रंगे होते हैं। कहीं कोई मछलियों के साथ तैरता हुआ सागर की तलहटियों में पहुँच जाता है, तो कोई पक्षियों के साथ आसमान की सैर कर रहा होता है। कोई जंगलों में खोया है , तो कोई बारिश की बूंदों में खोया - खोया नजर आता है। सबकी अपनी - अपनी फंतासी दुनिया।
एक जुनूनी दौर होता है। हर कोई अपनी गली का शेर, हर किसी को एक शाबाशी का इन्तजार, हर किसी के अपने - अपने दोस्त, जाती -पाती की दीवारों से परे। सब खो जाते हैं इन रंगीनियों में। सब अनाडी होते हैं। लेकिन सबको लगता है की हम ही मझे हुए खिलाडी हैं। ढेरों सवाल मन को उधेड़ते हैं , दार्शनिक जान पड़ते हैं। खेल और बचपन जैसे दोनों एक दुसरे के लिए बने हैं। गुडी - गुडिया से लेकर चोर - पुलिस तक का खेल। हर खेल अनोखा होता है। सबका अपना अंदाज होता है।
हर बुजुर्ग, हर जवान मर्द, हर औरत , हर लड़की ; सबके अपने - अपने बचपन के किस्से होते हैं। जितने मुह उतनी बातें; हर कोई संजो के रखता है इन पलों को। उन यादों को जो दिल में मीठा अहसास जगा जाती है। और कोई क्यों न संजोये इन यादों को। क्योंकि यह होती ही है एक कामेडी पिक्चर की तरह। जिसमे हर सीन के बाद हँसी छुट पड़ती है। कोई हँसे या न हँसे लेकिन हर वो सख्स हंस पड़ता है; जिसकी ये बचपन की दास्ताँ होती है। शायद ये होती ही इतनी मजेदार है।
प्यारा बचपन जो हर किसी के दिल की हार्ड डिस्क में सदैव मौजूद रहता है। जिसका डाटा कभी मिटता नहीं जब तक साँसे जिंदा रहती हैं।
बचपन हर किसी का बचपन। यूँ समझो सपनो का आशियाना। सपनो की कोई सीमा नहीं,ये पुरे ब्रह्माण्ड तक चक्कर लगाती हैं। रेत के ढेर की मानिद जो हवा के झोंके के साथ कभी उस छोर तो कभी इस छोर चल पड़ती हैं। सपने कई रंगीनियों में रंगे होते हैं। कहीं कोई मछलियों के साथ तैरता हुआ सागर की तलहटियों में पहुँच जाता है, तो कोई पक्षियों के साथ आसमान की सैर कर रहा होता है। कोई जंगलों में खोया है , तो कोई बारिश की बूंदों में खोया - खोया नजर आता है। सबकी अपनी - अपनी फंतासी दुनिया।
एक जुनूनी दौर होता है। हर कोई अपनी गली का शेर, हर किसी को एक शाबाशी का इन्तजार, हर किसी के अपने - अपने दोस्त, जाती -पाती की दीवारों से परे। सब खो जाते हैं इन रंगीनियों में। सब अनाडी होते हैं। लेकिन सबको लगता है की हम ही मझे हुए खिलाडी हैं। ढेरों सवाल मन को उधेड़ते हैं , दार्शनिक जान पड़ते हैं। खेल और बचपन जैसे दोनों एक दुसरे के लिए बने हैं। गुडी - गुडिया से लेकर चोर - पुलिस तक का खेल। हर खेल अनोखा होता है। सबका अपना अंदाज होता है।
हर बुजुर्ग, हर जवान मर्द, हर औरत , हर लड़की ; सबके अपने - अपने बचपन के किस्से होते हैं। जितने मुह उतनी बातें; हर कोई संजो के रखता है इन पलों को। उन यादों को जो दिल में मीठा अहसास जगा जाती है। और कोई क्यों न संजोये इन यादों को। क्योंकि यह होती ही है एक कामेडी पिक्चर की तरह। जिसमे हर सीन के बाद हँसी छुट पड़ती है। कोई हँसे या न हँसे लेकिन हर वो सख्स हंस पड़ता है; जिसकी ये बचपन की दास्ताँ होती है। शायद ये होती ही इतनी मजेदार है।
प्यारा बचपन जो हर किसी के दिल की हार्ड डिस्क में सदैव मौजूद रहता है। जिसका डाटा कभी मिटता नहीं जब तक साँसे जिंदा रहती हैं।
"न्याय की जीत का एक और स्तम्भ"
दस जनवरी १९९९ एक अमीर घराने के बेटे संजीव नंदा सुबह के समय नशे की हालत में साऊथदिल्ली के लोधी रोड पर ६ लोगों को बी० एम० डब्लू ० कार से रौंद देते हैं। जिसमे तीन पुलिस कर्मी और तीन अन्य लोग सामिल होते हैं। हद तब हो जाती है जब वे घटनास्थल पर रुके बिना अपने दोस्त के घर गाडी लेकर फरार हो जाते हैं। वहाँ वो सबूतों को मिटाने के लिए खून से सनी गाडी और मरे हुए लोगों के चिपके हुए मांस को धो डालते हैं। ये हैवानियत की पराकास्ता नही तो और क्या है? प्रजातंत्र की दुहाई देने वाले इस देश में आख़िर ये क्या हो रहा है? नौ साल बीत चुके हैं , इस घटना को । और ये केस घिसट - घिसट के आगे बढ़ रहा था। मीडिया की पहल और स्टिंग आपरेशनों ने इस केस में मदद की। ये बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण रहा की, इसमे बचाव व अभियोजन पक्ष के वकील आर०के०आनन्द(कांग्रेस पार्टी के सदस्य) और ए० यु० खान भी सांठगांठ में संलिप्त रहे। लेकिन अभी जो फैसला आया उसने एक बार फ़िर न्यायपालिका को सर्वोच्च करार दे दिया। हफ्ते भर पहले दिल्ली की एक निचली अदालत ने जाने माने व्यवसायी सुरेश नंदा के तीस वर्षीय बेटे संजीव नंदा को गैर इरादतन हत्या का दोसी ठहराते हुए पाँच साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई। और व्यवसायी राजीव गुप्ता समेत तीन अन्य लोगों को भी दोसी पाया। और दोनों वकीलों को न्याय में बाधा पहुचाने के आरोप में चार महीने की वकालत पर प्रतिबंध लगाया। इस केस के लंबे समय तक चलने की जदोजहद ने एक बार फिर साबित किया की इसमे पैसे पानी की तरह बहाए गए होंगे और रिस्वतों के दौर पे दौर चले होंगे।
आख़िर अमीर बाप की ये बिगडैल संताने कब तक गरीब मासूमों को चीटियों की तरह रौंदती रहेंगी। पैसे के घमंड में चूर होकर ये कुछ भी करती रहे, आख़िर ये हक़ इन्हे किसने दिया? ऐसा ही जेसिका लाल हत्याकांड मामले में हुआ था। वो तो मीडिया का सुक्र्गुजार होना चाहिए नहीं तो इनका वश चले तो ये लोग ग़रीबों को न्यायालय तक भी न पहुचने दे। विशाल भारत का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। लेकिन ये कुछ बिगडैल अमीर जादो ने इसकी चमक धूमिल करने की कोशिस की है। इन्हे सबक लेना चाहिए उन अमीर घरानों की होनहार संतानों से जिन्होंने एक सीमा को बनाए रखते हुए देश का नाम रोशन किया। जिनमे अनिल और मुकेश अम्बानी एवं रतन टाटा जैसे लोग हैं। हमे आशा रखनी चाहिए की न्याय की सर्वोच्च साखा भी इस फैसले को बरकरार रखेगी। क्योंकि ये तो चलन है की यहाँ हार के बाद ये लोग आगे भी अपील दायर करेंगे।
लेकिन हम विश्वास के के साथ यह कह सकते हैं की जेसिका लाल हत्याकांड में दिए गए सही फैसले की तरह इस फैसले का भी सही निर्णय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया जायेगा।
दस जनवरी १९९९ एक अमीर घराने के बेटे संजीव नंदा सुबह के समय नशे की हालत में साऊथदिल्ली के लोधी रोड पर ६ लोगों को बी० एम० डब्लू ० कार से रौंद देते हैं। जिसमे तीन पुलिस कर्मी और तीन अन्य लोग सामिल होते हैं। हद तब हो जाती है जब वे घटनास्थल पर रुके बिना अपने दोस्त के घर गाडी लेकर फरार हो जाते हैं। वहाँ वो सबूतों को मिटाने के लिए खून से सनी गाडी और मरे हुए लोगों के चिपके हुए मांस को धो डालते हैं। ये हैवानियत की पराकास्ता नही तो और क्या है? प्रजातंत्र की दुहाई देने वाले इस देश में आख़िर ये क्या हो रहा है? नौ साल बीत चुके हैं , इस घटना को । और ये केस घिसट - घिसट के आगे बढ़ रहा था। मीडिया की पहल और स्टिंग आपरेशनों ने इस केस में मदद की। ये बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण रहा की, इसमे बचाव व अभियोजन पक्ष के वकील आर०के०आनन्द(कांग्रेस पार्टी के सदस्य) और ए० यु० खान भी सांठगांठ में संलिप्त रहे। लेकिन अभी जो फैसला आया उसने एक बार फ़िर न्यायपालिका को सर्वोच्च करार दे दिया। हफ्ते भर पहले दिल्ली की एक निचली अदालत ने जाने माने व्यवसायी सुरेश नंदा के तीस वर्षीय बेटे संजीव नंदा को गैर इरादतन हत्या का दोसी ठहराते हुए पाँच साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई। और व्यवसायी राजीव गुप्ता समेत तीन अन्य लोगों को भी दोसी पाया। और दोनों वकीलों को न्याय में बाधा पहुचाने के आरोप में चार महीने की वकालत पर प्रतिबंध लगाया। इस केस के लंबे समय तक चलने की जदोजहद ने एक बार फिर साबित किया की इसमे पैसे पानी की तरह बहाए गए होंगे और रिस्वतों के दौर पे दौर चले होंगे।
आख़िर अमीर बाप की ये बिगडैल संताने कब तक गरीब मासूमों को चीटियों की तरह रौंदती रहेंगी। पैसे के घमंड में चूर होकर ये कुछ भी करती रहे, आख़िर ये हक़ इन्हे किसने दिया? ऐसा ही जेसिका लाल हत्याकांड मामले में हुआ था। वो तो मीडिया का सुक्र्गुजार होना चाहिए नहीं तो इनका वश चले तो ये लोग ग़रीबों को न्यायालय तक भी न पहुचने दे। विशाल भारत का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। लेकिन ये कुछ बिगडैल अमीर जादो ने इसकी चमक धूमिल करने की कोशिस की है। इन्हे सबक लेना चाहिए उन अमीर घरानों की होनहार संतानों से जिन्होंने एक सीमा को बनाए रखते हुए देश का नाम रोशन किया। जिनमे अनिल और मुकेश अम्बानी एवं रतन टाटा जैसे लोग हैं। हमे आशा रखनी चाहिए की न्याय की सर्वोच्च साखा भी इस फैसले को बरकरार रखेगी। क्योंकि ये तो चलन है की यहाँ हार के बाद ये लोग आगे भी अपील दायर करेंगे।
लेकिन हम विश्वास के के साथ यह कह सकते हैं की जेसिका लाल हत्याकांड में दिए गए सही फैसले की तरह इस फैसले का भी सही निर्णय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया जायेगा।
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