Friday, December 26, 2008

साल २००८
( चार कदम आगे एक कदम पीछे )
यह साल कई मायनो में खुशनुमा साबित हुआ। लेकिन कुछ पलों में निराशा भी दे गया। खेलों में हमने नई पताकाएं फहरायी । खेलों ने महेंद्र सिंह धोनी, सायना नेहवाल ,मेरिकाम ,अखिल कुमार, विजेंदर सिंह, सुशिल कुमार, अभिनव बिंद्रा, जीतेन्दर ,पंकज आडवानी ,दिवाकर राम जैसे नई युवा सनसनियों के दर्शन कराये। वहीँ आल टाइम फेवरेट सचिन, विश्वनाथ आनंद ने अपनी सफलताओं में एक -एक और मील का पत्थर रखा ।
इसरो ने चन्द्रयान के सफर में मानव रहित यान भेज हमारे लिए नई दुनिया का रास्ता खोला। वहीँ साहित्य तथा फिल्मों के सफर में हमने नए विचारों, नई रचनात्मक्त सोच की भी उथल पुथल देखी । सरकार की एकमात्र उपलब्धी परमाणु करार ने साबित किया की हम विश्वभर में एक सशक्त देश के रूप में उभर रहे हैं। जिसकी अनदेखी करना अब सम्भव नहीं है।
वहीँ हमारे लिए निराशाजनक पहलु यह रहा की हम पूरे साल भर बम विस्फोटों और आतंकवाद से जूझते दिखे। इस मोर्चे पर हमें हार ही हार मिली । यहाँ तक छेत्रियता की लडाई में भी हम अपनों के खून की होली खेलते रहे , इससे बड़ा शर्मनाक पल क्या हो सकता है।
शेयर बाजार जो साल के शुरूआती दौर में पुरे उफान पर था। साल के मध्य में धरासायी हो गया और अंत तक जूझता नजर आ रहा है। सब चिंतित नजर आ रहे हैं। लेकिन यह भी सत्य है की पैसे से पैसा बनाने के इस खेल में एक चौथाई से भी कम जनसंख्या निर्भर है । हम सम्हल सकते हैं। कुल मिलाकर पूरे साल में जहाँ हम चार कदम आगे बढे वहीँ एक कदम पीछे भी हुए ।
" अलविदा 2008 "

Wednesday, December 10, 2008

बमों के धमाके पे बैठा मेरा हिंदोस्ता

" हमें अपनों ने लुटा /गैरों में कहाँ दम था/हमारी किश्ती वहाँ डूबी /जहाँ पानी कम था "। एक फ़िल्म के शायराना अल्फाज सटीक बैठते हैं हमारे मुल्क पर ; जो आज बमों के ढेर से छलनी हुए जा रहा है। किस गली , किस चौराहे , किस सभा में क्या हो जाए हमें कुछ पता नहीं। लगता है जिंदगियों के कोई मायने नहीं रहे। हमारे अपने देश के टुकड़े से बना पाकिस्तान जो सन १९४७ से लगातार हमारे लिए परेशान किए जा रहा है। और अबकी इतना बड़ा दुस्साहस चाक - चौबंद सुरक्षा से लैस इलाका ताज होटल, ओबेरॉय होटल और नरीमन हॉउस सब के सब को धूल धूल कर दिया।

पूर्वोतर में गुवाहाटी से लेकर पश्चिम में मुंबई , अहमदाबाद उत्तर में जम्मू-कश्मीर, दिल्ली से लेकर दक्षिण में बंगलुरु तक सब जगह बमों के गर्दो - गुबार में खून की होली खेलते हुए आतंकवादी । जब चाहे जहाँ चाहे अपने मकसद में सफल हो रहे हैं। कोई रोक- टोक न रही अब। इन धमाकों में इंसानों के मांस के लोथडे चिथड़े -चिथड़े हो रहे हैं । ये बड़ा भयानक,वीभत्स और लोह्मर्सक है। पिछले छः - सात महीनो से देश को उथल- पुथल करके रख दिया है। केन्द्र सरकार मानो कुछ करने में असहाय नजर आ रही है। अब अगर जरुरत है तो अपनी आतंरिक सुरक्षा के बारे में ठोस फैसले लेने की। और सबसे ज्यादा जरुरत है तो पुलिस फोर्स की परिभासा बदलने की। इसे भी कड़वे घूंट पिलाने की जरुरत है, नहीं तो ये नई दुल्हन की तरह सजावटी नजर आता है। अगर अब भी हम नहीं सुधरे तो -----

" यूँ ही बमों के गर्दो-गुबार में अपनों के छितरे शरीरों को खोजते नजर आयेंगे "

Friday, November 28, 2008

बस दरकरार है तो घर से बाहर

भारतीय क्रिकेट टीम इस समय पूरे शबाब पर है। हर खिलाडी बेहतरीन परफार्मेंस के लिए उतावला नजर आ रहा है। लेकिन खिलाड़ियों ने ऐसा प्रदर्शन अब ही नही किया है। पहले भी पुराने खिलाडी ऐसा कर चुके हैं। चाहे १९८३ की कपिल देव की टीम हो , चाहे मोहम्मद अजहर की टीम जिसने एक साल में चार - पाँच खिताब कब्जाए या गांगुली के नेत्रित्व वाली २००० की टीम सभी ने एक समय में बढ़िया प्रदर्शन किया, और पूरे उफान पर आकर विदेशी टीम को रौंदा । लेकिन उन टीमो का ये प्रदर्शन ज्यादा टिकाऊ नही रहा।

धोनी के नेत्रित्व वाली भारतीय टीम अपने जीत के सुहाने सफर को कहाँ तक जारी रखती है, यह देखना काबिलेगौर होगा। क्योंकि ये जीत अभी हमें घरेलू सीरीज या इस उपमहाद्वीप की पिचों पर मिल रही है। और ये जीत अगर विदेशी तेज पिचों पर आए तो तब इस जीत के कई मायने होंगे ।पिछले वर्ल्ड कप की नाकामी के बाद टीम इंडिया ने अपने खेल में जबरदस्त सुधार किया है। इस समय हमारे पास तेज बालरों का समूह है , आक्रामक बैट्समैन , चुस्त फिल्डर और मैदान में रोमांच पैदा करने वाले जोशे खरोश वाले खिलाडी और एक बढ़िया कूल कप्तान । बस जरुरत है , तो इस सफर को विदेशी पिचों तक जारी रखने का। क्योंकि वहीँ आपकी काबिलियत की परीक्षा होती है। जहाँ आपके मन माफिक दर्शक नहीं होते हैं, मनमाफिक पिचें नहीं होती है। और तेज पिचों पर पड़ने के बाद गेंद जब कानो के करीब से सनसनाहट पैदा करके निकल जाती है , तो तब परफार्म करना अपने आप में बहुत बड़ी बात हो जाती है। इस कन्डीशन में तब ऐसी जीत के मायने टीम इंडिया के कद को बढ़ा सकते हैं।

Thursday, October 23, 2008

व्यंग्य
(कैशोक्रेशी का दौर )
चचाजान बोले, बेटा जुम्मन आज ज़माना कित्ता बदल गया है। आज तो हर जगह कैशोक्रेसी का दौर है। जुम्मन बोला, चचाजान आपका दिमाग है या कम्पूटर कभी - कभी आप ऐसी गल करते हो की समझ ही नी आंदी। डेमोक्रेसी सुना , हिपोक्रेसी सुना, रस्साकस्सी सुना ; ये कैसोक्रेसी किस बला का नाम है। चचाजान बोले, जुम्मन बेटा ज्यादा दिमाग न लड़ाओ । इसका शुद्ध तात्पर्य है , जब नेता लोग अपनी सरकार बचाने के वास्ते हरे- हरे नोटों का खेल खेलते हैं, अपना काम निकालने के वास्ते लोग जब कर्मचारियों को नोटा ही नोटा से जेब भर देते हैं। तो यही तो कैशोक्रेसी है। देश मैं कहीं डेमोक्रेसी हो न हो पर कैशोक्रेसी तो हर जगह है। अपने पड़ोस के तिवारी जी को देख लो कैसे कैशोक्रेसी करते हैं। अभी-अभी हुए स्थानीय निकाय चुनाव में जीत का डंका बजा के लौटे हैं। जेब गरम थी। जो मजाल कोई सदस्य शक्ती परिक्षण में इधर से उधर खिसक जाए । संसद में देखा क्या हरे -हरे नोटों की गद्दीयाँ दिखायी दे रही थी। बेटा कई साल बाद देखा इत्ते नोट , मुह में पानी आ गया था । बेटा आज तो ये दौर है की किसी से काम लेना है तो "नोट दो काम लो " का नारा बुलंद करो। जुम्मन बोला, चचाजान मैंने सुना था की, अभी जो जिला पंचायत चुनाव हुए थे उसमे कई सदस्य अनपढ़ थे। जनता तो पढ़ी लिखी है क्या कोई भी पढ़ा लिखा उम्मीदवार खडा नहीं हुआ था ? चचाजान बोले , बेटा यही तो हमारे देश की खासियत है , किसी को भी जीता सकती है। जनता का मूड है , वो हमेशा सरप्राइज परफार्मेंस देती है। पढ़े - लिखे लोग बढ़ रहे है । देश के नेता जानते हैं की , ये हमारी भासा अनपढ़ जनता से ज्यादा जानते हैं । बस दो-चार नोट इधर , दो - चार उधर और हो गई नोट की रसाकस्सी । जो मजाल कोई वोट इधर से उधर दे दे । बेटा फ़िर न तो अनपढ़ दिखता है न कोई मर्डर मिसट्री वाला । सब जनता को अच्छे - भले लगते हैं।
अपना पप्पू बेटा , सिबू सोरेन भय्या कितने मजे कर रहे हैं। मैंने सुना है पप्पू बेटा की जेल में बड़ी आवाभगत हो रही है। उसने तो जेल में कैंटीन भी ले ली है। और सोच लिया है की , कैदी भाइयों को फाइव स्टार होटल से भी बढ़िया - बढ़िया पकवान खिलाऊगा ।
और सिबू सोरेन भइया कित्ती तरक्की में है। पहले कोयले में हाथ काले किए , फ़िर संसद में खूब केशोक्रेशी की मौजा लुटी और अब मुख्यमंत्री पद क्या बात है। सुनने में आया है रावन उनके कुलदेवता है। सिबू भैया खूब पूजा करते रहो तरक्की मिलती रहेगी ।
जुम्मन बेटा देखा केशोक्रेसी की पालिसी इसी में मजे हैं। अब तो जनता भी केशोक्रेसी को हाथों हाथ ले रही है । बेटा क्यों नही देश में डेमोक्रेसी की जगह केशोक्रेसी लागू कर दी जाय। जुम्मन बोला चचाजान का आइडिया बुरा नहीं है। तो जनता जी ऐसे ही केशोक्रेसी को आगे बढाते रहो आप भी खुश और नेता जी भी खुश।

Thursday, October 16, 2008

व्यंग्य
(मौजा ही मौजा)
मैं अपने चचाजान से मिलने मुंबई से दिल्ली आया। यूँ ही बातों का सिलसिला शुरू हुआ। चचाजान बोले , बेटा जुम्मन सिनेमा के दौर लद गए । अब यंही मडी हॉउस में डेरा दाल दो । आजकल तो टीवी पर जो दीखता है वही बिकता है। एक हमारा दौर था । जब सिनेमा हॉलों में सिल्वर जुबली ,गोल्डन जुबली मनाई जाती थी। पर आज तो लोग सिनेमा हॉलों को जाना भूल गए हैं। पायरेटेड सीडी का ज़माना आगया है। मैंने कहा , चचाजान आपकी बात तो सही है। लेकिन मुझ जैसे डाइरेक्टर के लिए यहाँ स्कोप बताओ ना। चचाजान बोले, जुम्मन बेटा यहाँ तो मैदान खाली है। हाकी की स्टिक लेकर कहीं भी स्कूप कर दो । क्या फर्क पड़ता है। हर जगह गोलपोस्ट ही गोलपोस्ट है। मैंने कहा चचाजान आपकी बात समझ में नही आ रही है, साफ़ साफ़ कहो। चचाजान बोले, जुम्मन बेटा आजकल अपने सलू मियाँ, राखी बिटिया , शाहरुख , बच्चन जी ,अक्की बेटा सभी तो टीवी पर शोज दिखा रहे हैं। कहीं रियल्टी शो चल रहे हैं, कहीं क्विज कांटेस्ट, कहीं सीरियल। कई सीरियल तो चलते ही जा रहे हैं। ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेते हैं। एकता बिटिया का सीरियल "सास भी कभी बहु थी" ख़त्म ही नी होंडा । जुम्मन बेटा पैसा ही पैसा है । पढ़े लिखे लोगों का ज़माना है। इस बहती गंगा में हाथ धो लो। चार बड़े - बड़े कलाकार पकड़ लो और जनता के सामने लड़वा दो । जनता खुश तो रियल्टी शो हिट । एकता बिटिया की तरह एक सीरियल बनादो " बहु भी किसी की बेटी है"। बेटा ये टाइटल मैंने बहुत दिनों से सोच रखा था । अब इस हिट करवादो । चार - पाँच बार बहु को मरवा दो । फ़िर अलग - अलग तरीके से जिंदा करवादो , दस - बारह शादी करवा दो । दो चार सांग भी रख दो । बेटा मजा आ जाएगा । सीरियल में कई जुबलियाँ हो जायेंगी सारी पिक्चर का औसत निकल जायेगा। या फ़िर कोई न्यूज़ चैनल बना डालो । चटकारी - पत्त्कारी ख़बरों से भर दो । लाईव टेलीकास्ट लो , कहीं भी पहुँच जाओ । गल्ली - मुहल्ले , टाइलेट , पेड़ कोई जगह मत छोड़ना । सबका टेलीकास्ट होना चाहिए । आख़िर खबरिया चैनल है। पल- पल की ख़बर होनी चाहिए । सब की ख़बर लो , दो चार पिक्चर के सीन भी रखो । तो मौजा ही मौजा । क्राइम रिपोर्ट और भाविस्यफल वाले पार्ट में हिन्दी पिक्चर की तरह क्लाइमेक्स देना मत भूलना । देश की जनता भावुक है। इनमे थोड़ा मसाला न हो तो मजा नहीं आता है। देखो धंधा फ़िर चल पड़ेगा ।
मुझे चचाजान की बातो में दम दिखाई दिया है। क्यों न टीवी की तरफ़ मूड लिया जाए । यहाँ तो मौजा ही मौजा है।

Thursday, October 9, 2008

व्यंग्य

(बाबू जी की बाबूगीरी )

आज देश में हलचल ज्यादा है। हर तरफ़ भागमदौड़ है। पर अपने बाबू साहेब तो ऐसे हैं की उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। उनकी तो मौजा ही मौजा है। देश के हर सरकारी दफ्तर में लोग उनसे मिलने यूँ आते हैं ; जैसे किसी मन्दिर में अपनी मन्नत के लिए चढावा देने आते हैं। उनकी अदाओं के आगे तो बड़ी-बड़ी हीरोइने भी फेल समझो। पुरानी पिक्चरों के गाने तो देखो । कई पिक्चरों के गानों में 'बाबू' शब्द ढूँढोगे तो जरुर मिल जायेगा। क्योंकि डायरेक्टर को पता होता था की 'बाबू' शब्द में कितना झोल है। आज के डायरेक्टर तो नालायक ठहरे । 'गांधीगीरी' बना डाली। पर एक 'बाबूगीरी ' नहीं बना पाए। कोई भी सरकारी काम हो हर फाइल उनकी टेबल से होकर गुजरती है। और बगैर उनके औटोग्राफ के आगे चली जाए , तौबा - तौबा । हर बड़ा आदमी ,हर पढ़ा-लिखा और हर गरीब उनके आशीर्वाद के बिना कैसे सफल हो सकता है। इसके महत्व को सब जानते हैं। तभी तो सब मत्था टेक कर और गुरुद्क्शीना दिए बिना आगे नहीं बढ़ते। जिसने चू - चपड की नहीं की उसका बेडा गर्क समझो । ये दूसरी दुनिया के लोग होते हैं , इनके आगे तो समझो किसी का वश नहीं। इनकी कारीगीरी का तोड़ तो शायद है ही नहीं है। हर्षद मेहता ,अब्दुल करीम तेलगी जैसे दिग्गज फेल हो गए , पर इनको कोई फेल नहीं कर पाया। जनता इनसे मिलने आती है तो 'बाबू' के साथ 'जी' लगाना नहीं भूलती है। क्योंकि 'बाबू' के साथ 'जी' लगाने से इसका वजन बढ़ता है। जनता को पता है की , अपने पिताजी के साथ जी लगाओ न लगाओ पर 'बाबूजी ' के साथ 'जी' लगाओ तो वे बड़े गौरवान्वित हो जाते हैं ।बाबू साहेब का सीना चौडा हो जाता है। अमेरिका के टावर गिरे या बम धमाके हो जाए या देश के शेयर लोट- पोत हो जाए पर अपने बाबू मोशाय तो ऐसे हैं की इनका शेयर मार्केट तो कभी गिरता ही नहीं वो तो चढ़ता ही रहता है।

सरकार के पास तो काम - वाम है नहीं एक फालतू का कानून 'सूचना का अधिकार ' बना डाला । दफ्तरों में कम्पूटर लगा दिए। बस फ़िर क्या बाबू साहेब आजकल थोड़ा चिंता में घिरे रहते हैं। उन्हें तो अपने आगे कूड़ा नजर आता है। उन्हें भविष्य की चिंता होने लगी है। क्या होगा हमारी भावी पीढी का, वो हमारी तरह मौजा ही मौजा में रहेंगे या नहीं। खैर ताजा समाचार यही है की वो भी अपने विरोधियों को पटखनी देने के वास्ते रिसर्च में जुट गए हैं। और उन्होंने एलान भी कर दिया है की हम गांगुली जी तरह इतनी जल्दी हार मानने वाले नहीं हैं। वो इस सीरिज के बाद खेल या न खेले हम तो खेलते रहेंगे । जब तक जनता जनार्दन हमें समर्थन देती रहे।

Thursday, October 2, 2008

"दिलों में खटास का दौर"

आज दुनिया जितनी तेजी से बदल रही है । उतना ही लोगों का दिल और दिमाग भी बदल रहा है । हमारे देश में एक ख़ास बात है। हर जगह महफिले सज जाती है। कभी पान की दुकान, कभी सड़कों,कभी होटलों तो कहीं आफिस में चार - पाँच लोग जमा हुए नही की हर घटना पर प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू। ऐसे ही एक आफिस में प्रतिक्रियाओं का दौर चल रहा था। पाकिस्तान में हुए बम धमाकों और हाल में भारत हुए धमाकों के बारे में । सबकी एक ही मिली जुली प्रतिक्रिया रही " ठीक ही तो है इस भीड़ में से दो चार और कम हो जायेंगे "

मैं दंग रह गया । शायद यह बदलते जमाने का नया संदेश है। आज लोगों के बीच बस एक बात रह गई है । " मैं और मेरे लोग " बाकी सब मरे - बचे किसी को किसी की फ़िक्र नहीं । ये वे लोग हैं जिन पर ये विपदा नहीं गुजरी है । ये वे लोग हैं जो बदलते जमाने का नया संदेश दे रहे हैं । एक पिक्चर आई है 'मुंबई मेरी जान' । मुंबई बम विश्फोतो पर आधारित इसमे जब एक दुर्घटना में एक पत्रकार एक पीड़ित व्यक्ति से यह पूछती है की आपको कैसा लगा अपने परिजनों को खोकर । फ़िर जब उसी पत्रकार जो अपने होने वाले पति को खो देती है बम विस्फोटो में , से ये सवाल पूछा जाता है तो तब उसे लगता है की ये सवाल क्या सही है या ग़लत है ।

तो कहने का मतलब है एक पीड़ित व्यक्ति का दर्द एक पीड़ित ही जानता है। वो क्या जाने जो मीलों दूर बैठ कर प्रतिक्रियाएं देते हैं। आज भोतिक्तावादी भुत ने हमें इस कदर जकड लिया है की हम किसी और के दुःख दर्दों में सरीक होना भूल चुके हैं। सामाजिक कार्यों में भाग लेना तो बहुत पुरानी बात हो चुकी है । इस आधुनिकता में आगे बढ़ने की होड़ ,पैसों की भूख ने हमारे वजूद को तहस नहस करके रख दिया है।

पैसों के बल पर दुनिया खरीदने वाले लोगों को ये पता नहीं की यहाँ हार ही हार है । क्योंकि सिकंदर , हिटलर जैसे लोग भी खाली-खाली ही लोटे थे। अगर लोगों से पूछा जाए की १३ वी - १४ वी शताब्दी के किसी धना सेठ का नाम बताओ तो वो बगल झाकने लगेंगे। लेकिन किसी संत के बारे में पूछे तो लोगों का जवाब तुंरत आएगा तुलसीदास जी ।आख़िर लोगों को ये कैसे याद है ,ये लोगों को इसलिए याद है की अच्छे विचार जो कभी दफ़न नहीं होते हमेशा फलते और फूलते ही हैं । और वे हमेशा एक पीढी से दूसरी पीढी और कई पीढियों तक सफर करते रहते हैं। लेकिन पैसों का खेल ऐसा है की आज राजा है तो कल रंक बन जाए, इसमे कोई संदेह नहीं है।

फ़िर क्यों हम इन रिश्तों में खटास पैदा कर रहे हैं। कल शायद हममें से कोई न हो ,हमें कौन याद रखेंगे। इसलिये क्यों न आज से ही कुछ मीठे-मीठे रिश्तों की शुरुआत करें । जो हमारे जाने के बाद भी हमारी यादों को मीठा-मीठा कर दे।

"बेचारा ---उत्तराखंड क्रिकेट "

आज अधिकांश राज्यों की क्रिकेट टीमे रणजी ट्राफी क्रिकेट में प्रतिनिधित्व कर रही है । ऐसे में उत्तराखंड राज्य की रणजी ट्राफी टीम का न होना राज्य के खेल प्रेमियों को हमेशा कचोटता रहता होगा। बी जे पी सरकार बड़े बड़े दावे करती है की राज्य की प्रतिभाओं को उचित अवसर मुहैया कराये जायेंगे। लेकिन सब खाक नजर आ रहा है। हमारे यहाँ प्रतिभाओं की कमी नहीं है। यहाँ की क्रिकेट प्रतिभाएं समय- समय पर दूसरे राज्यों की और पलायन करती रही है। इसका जीता जागता उदाहरण महेंद्र सिंह धोनी जैसे क्रिकेटर हैं। यहाँ की जनता जिनके दिलों में ख्वाब होता है। अपने बच्चों को एक अंतरास्तरीय क्रिकेटर बनाने का।इसके लिए वो धीरे- धीरे दूसरे राज्यों में पलायन करते रहे हैं। उत्तराखंड में कोचिंग क्लब खुले हैं। प्रतिभाएं दिन -रात मेहनत भी करती है।लेकिन क्या फायदा उनकी दिन-रात की मेहनत का जो उनको सिर्फ़ क्लब तक सिमट कर रख देती है।

क्योंकि भारतीय टीम में आपको अगर प्रतिनिधित्व करना है , तो पहले आपको रणजी क्रिकेट में प्रदर्शन करना होता है। तब जाकर आपके प्रदर्शन के बारे में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड सोचता है। माना की भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड एक नीजी संस्था है। सरकार के दिशा निर्देश यहाँ नहीं चलते । लेकिन राज्य सरकार की तरफ़ से एक कोशिश तो होनी चाहिए। उन्हें भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के समक्ष अपना पक्ष रखना चाहिए ,की हमें भी राज्य रणजी ट्राफी टीम का प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए । लेकिन न तो राज्य के मुख्यमंत्री जी और न ही खेल मंत्री जी को इसकी फ़िक्र है । खेलमंत्री जी तो केवल अपनी राजनितिक गतिविधियों में व्यस्त हैं। उन्होंने आज तक अन्य खेलों के लिए भी एक भी गंभीर प्रयास नहीं किए हैं। उन्होंने तो सुरेंदर भंडारी का नाम भी सुना हो या नहीं सुना हो । जिसने ओलंपिक खेलों में देश का प्रतिनिधित्व किया था। और जो लगातार देश- विदेश में अच्छा प्रदर्शन कर पदक जीत रहा है। क्योंकि अभी तक न तो इस खिलाड़ी को राज्य सरकार ने पुरस्कृत किया है और न ही इसकी हौसला अफजाई की है। सुन रहे हैं न मुख्यमंत्री जी और खेल मंत्री जी ।

कब तक हमारी प्रतिभाये यूँ ही मटियामेट होती रहेंगी । और कब तक हम यूँ ही दबे- दबे रहेंगे। हमें भी तो हक़ है आगे आने का और आगे बढ़ने का और अपनी चमक से दुनिया को सराबोर करना है।

Wednesday, September 24, 2008

औली सैफ विंटर गेम्स-२००९
( नई सुबह की सुगबुगाहट )

उत्तराखंड राज्य के चमोली जिले में स्थित औली। दूर-दूर तक बर्फ की चादरों से फैला हुआ यह स्थल देश-विदेश से आने वाले सैलानियों को अपने अप्रितम सौंदर्य से मोहित कर देता है। उत्तराखंड में औली स्कीईंग के लिए उपयुक्त स्थल है। इसी को मद्देनजर रखते हुए इसे २००९ सैफ विंटर गेम्स की मेजबानी का अवसर प्राप्त हुआ है.
इतिहास में पहली बार उत्तराखंड को इतने बड़े अंतरास्ट्रीय आयोजन की मेजबानी का अवसर प्राप्त हुआ है। और इस मौके को सफल आयोजन में तब्दील करना राज्य सरकार, चमोली जिले और जोशीमठ नगर इन तीनो के एकजुट प्रयासों पर निर्भर रहेगा।
तैयारियों को लेकर उठा विवाद अब कुछ हद तक थम चुका है। अब उलटी गिनतियों का दौर जारी है। और सबको मिलकर इसे सफल बनाने के प्रयास आरम्भ कर देने चाहिए। क्योंकि ये गेम्स उत्तराखंड राज्य के लिए एक मील का पत्थर साबित होने जा रहे हैं। एक सफल कदम, सफलता के सौ दरवाजे खोलेगा। ये गेम्स केवल गेम्स तक सिमट कर नहीं रह जायेगा। बल्कि यहाँ के लोगों को मौका होगा अपनी संस्कृति , अपने जज्बे और यहाँ के अप्रितम सौंदर्य को देश - विदेश से आने वाले लोगों को रूबरू कराने का। आठ साल के उत्तराखंड ने सफलता के नए आयाम रचे हैं और जारी है। उससे पहले हमारी स्थती दबे - कुचले इंसान जैसी थी। मुजफर नगर कांड ने साबित भी किया की उत्तर प्रदेश सरकार हमें किस श्रेणी में रखती है। लेकिन उस घटना ने लोगों को और मजबूती दी। और आज हमें साबित करना है की इन आठ सालों में हमने अपने स्तर में सुधार के जो आयाम रचे हैं उसकी गूंज पूरे देश और विदेश में जरुर फैलनी चाहिए।
एक कहावत है की " अवसर बार- बार आपके चौखट में दस्तक नहीं देते हैं।" ये वक्त है अपना सब कुछ झोकने का , अपने युवाओं को सफलता का एक मार्ग बनाने का।
नए साल की शुरुआत के बाद पूरे देश की निगाहें आप पर होंगी। और तब--------------- क्या होगा, कैसे होगा. ये बातें पुरानी हो जायेंगी। बस सामने एक मंजिल होगी। जिसका एक ग़लत कदम राज्य की प्रतिष्ठा और आपको कई नीचे खाइयों में धकेल सकता है। और एक सफल कदम मंजिल के सैकड़ों रास्तों की दास्ताँ लिखेगा।
" क्योंकि हममें माद्दा है, जूझने का , लड़ने का।
हमने खेला है इन नदियों की लहरों में, पहाडों की गोद में।
हमने देखा है, अपने घर के सामने के पहाड़ पर चढ़ कर।
कैसा लगता है बुलंदियों के सिखर परचढ़कर। "
तो फ़िर क्या, शुरू हो जाईये------ इतिहास में अपने आपको साबित करने के लिए।

Sunday, September 14, 2008

बिल्यर्डस - स्नूकर का बादशाह
(पंकज आडवानी )


टाइगर वूड्स ,माइकल जोर्डन ,स्टेफी ग्राफ ,रोजर फेडरर ये कुछ नाम हैं। जिन्होंने अपने- अपने खेलों में अपनी बादशाहत साबित की थी। इनके सामने इनके प्रतिध्न्धी बौने साबित होते थे और हैं। इन्ही के नक्शे कदम पर एक और सख्स चल पडा है । जिन्होंने स्नूकर और बिल्यर्डस दोनों में अपनी मास्टरी साबित कर दी है। वह सख्स है पंकज आडवानी। २४ जुलाई १९८५ को जन्मा यह सख्स दस साल की उम्र में स्नूकर क्लब जा पहुँचा और इसे टेबल और छडी का खेल इतना पसंद आया की एक के बाद एक रिकार्ड बनते चले गए । ये विचित्र संयोग की बात थी की १९९० से पहले ये पूरा परिवार कुवैत में रह रहा था । लेकिन संयोग देखिये १९९० में इराक़ ने कुवैत पर हमला बोला तो ये पूरा परिवार वहाँ से शिफ्ट होकर बेंगलोर में बस गया। १७ साल की उम्र में गीत सेठी का रिकार्ड तोड़कर सबसे कम उम्र में चैम्पीयन बने । २००३ में सबसे कम उम्र के युवा एशियाई बने जिन्होंने आईबीएसऍफ़ विश्व स्नूकर स्पर्धा जीती । २००४ में अर्जुन पुरस्कार और २००६ में राजीव गांधी खेल रत्न अवार्ड से इन्हे नवाजा गया । पिछले हफ्ते बेंगलोर में आयोजित ओनजीसी आईबीएसऍफ़ विश्व बिल्यर्डस खिताब ( अंक और समय दोनों फार्मेट ) दोहरी सफलता के साथ जीता ।इससे पहले २००५ में माल्टा में डबल वर्ल्ड बिलियर्ड्स खिताब ( अंक और समय )दोहरी सफलता के साथ जीता था । अभी तक इन्होने ६ वर्ल्ड खिताब और दो एशियाई बिल्यर्डस स्पर्धाये जीती है। दोहा एशियन गेम्स में देश के लिए सोने का तमगा जीतना इनके जीवन के गौरवपूरण क्षणों में से एक था । अभी जिन्दगी के सिर्फ़ २४ वसंत इन्होने देखे हैं। इतनी कम उम्र में इतना सम्मान प्राप्त करना और खिताबों की झडी लगाना वाकई इन्हे इस खेल का बादशाह साबित करती है ।

Thursday, September 11, 2008

"निजी क्षेत्र के पीछे का सच "

निजी क्षेत्र जो इस समय नई बुलंदियों को छू रहा है। ऐसे में हर किसी का रुझान इस और है। युवाओं में भी इस का क्रेज है। इस क्षेत्र में सफलता, नाम और पैसा तीनो उपलब्ध है। लेकिन आपने इसके पीछे के दुसरे कटु सत्यों पर भी नजर डाली। शायद नहीं? यदि आप इसके पीछे के यथार्थ धरातल को देखे तो आप चोंके बिना नहीं रहोगे।
आज अगर हकीकत देखेंगे तो पायेंगे की इन निजी क्षेत्रों में योग्यता के आधार पर तो लोग चुने जा रहे हैं। लेकिन इन निजी क्षेत्रों में ही नौकरियों के लिए सिफारिश का चलन भी बढ़ता जा रहा है। और स्थति भयावह होती जा रही है। सिफारशी लोग जिनमे किसी का भाई, किसी के पापा, किसी के जीजा, किसी की बुवा------------------------------- ऐसे कई नाते - रिश्तेदार हैं । जो उच्च पदों पर है। वे लोग अपनी सिफारिश या दबदबे के बल पर अपने लोगों को शामिल कर लेते हैं। ऐसे में योग्य प्रतिभाएं धरी की धरी रह जाती हैं। जिनका न आगे न पीछे कोई सिफारशी गाडफादर है। वो लोग मुश्किल में पड़ जाते हैं। इंटरव्यू के लिय्रे जाते वक्त तो उनमे बड़ा उत्साह होता है। लेकिन इन्हे बेदखल कर दिया जाता है, बिना सिफारिश के। मतलब हर दामन पाक साफ़ नहीं है। दाग के छींटे कहीं न कहीं तो रहते हैं, क्योंकि ये कलयुग है। सब की तमना जवान होती है, वो चाहते हैं अच्छे रास्ते जहाँ वे मेहनत से हिला कर रख दे दुनिया को और चढ़ जाए सफलता की अनगिनत सीढियां पर। उनको यहाँ मिलती है तो जिल्लत । वो कहाँ से लाये सिफारशी प्रमाणपत्र । ऐसे में वो क्या करे? वो थके हारे रह जाते हैं। वो मजबूर हो जाते हैं। या तो वो जिन्दगी से समझौता कर लेते हैं या दबी हुई चिंगारी से एक आक्रोश का जनम होता है। जो ग़लत हाथों में पड़कर दुसरे तरीके ईजाद कर लेते हैं। और फ़िर कुछ बेरहम इंसानों के ग़लत फैसलों का फल सारी जनता को भुगतना पङता है। इन चिंगारियों का हस्र भी बुरा होता है। या तो वो पुलिस की गोलियों का निशाना बनते हैं। या फ़िर जेल उनका नया आशियाना बनती है।
आज ऐसे दफ़न होते लोगों को उबारने की जरूरत है। कौन इस सिस्टम में सुधार लाएगा शायद यह एक अबूझ पहेली है।
"बचपन प्यारा बचपन"

बचपन हर किसी का बचपन। यूँ समझो सपनो का आशियाना। सपनो की कोई सीमा नहीं,ये पुरे ब्रह्माण्ड तक चक्कर लगाती हैं। रेत के ढेर की मानिद जो हवा के झोंके के साथ कभी उस छोर तो कभी इस छोर चल पड़ती हैं। सपने कई रंगीनियों में रंगे होते हैं। कहीं कोई मछलियों के साथ तैरता हुआ सागर की तलहटियों में पहुँच जाता है, तो कोई पक्षियों के साथ आसमान की सैर कर रहा होता है। कोई जंगलों में खोया है , तो कोई बारिश की बूंदों में खोया - खोया नजर आता है। सबकी अपनी - अपनी फंतासी दुनिया।
एक जुनूनी दौर होता है। हर कोई अपनी गली का शेर, हर किसी को एक शाबाशी का इन्तजार, हर किसी के अपने - अपने दोस्त, जाती -पाती की दीवारों से परे। सब खो जाते हैं इन रंगीनियों में। सब अनाडी होते हैं। लेकिन सबको लगता है की हम ही मझे हुए खिलाडी हैं। ढेरों सवाल मन को उधेड़ते हैं , दार्शनिक जान पड़ते हैं। खेल और बचपन जैसे दोनों एक दुसरे के लिए बने हैं। गुडी - गुडिया से लेकर चोर - पुलिस तक का खेल। हर खेल अनोखा होता है। सबका अपना अंदाज होता है।
हर बुजुर्ग, हर जवान मर्द, हर औरत , हर लड़की ; सबके अपने - अपने बचपन के किस्से होते हैं। जितने मुह उतनी बातें; हर कोई संजो के रखता है इन पलों को। उन यादों को जो दिल में मीठा अहसास जगा जाती है। और कोई क्यों न संजोये इन यादों को। क्योंकि यह होती ही है एक कामेडी पिक्चर की तरह। जिसमे हर सीन के बाद हँसी छुट पड़ती है। कोई हँसे या न हँसे लेकिन हर वो सख्स हंस पड़ता है; जिसकी ये बचपन की दास्ताँ होती है। शायद ये होती ही इतनी मजेदार है।
प्यारा बचपन जो हर किसी के दिल की हार्ड डिस्क में सदैव मौजूद रहता है। जिसका डाटा कभी मिटता नहीं जब तक साँसे जिंदा रहती हैं।
"न्याय की जीत का एक और स्तम्भ"

दस जनवरी १९९९ एक अमीर घराने के बेटे संजीव नंदा सुबह के समय नशे की हालत में साऊथदिल्ली के लोधी रोड पर ६ लोगों को बी० एम० डब्लू ० कार से रौंद देते हैं। जिसमे तीन पुलिस कर्मी और तीन अन्य लोग सामिल होते हैं। हद तब हो जाती है जब वे घटनास्थल पर रुके बिना अपने दोस्त के घर गाडी लेकर फरार हो जाते हैं। वहाँ वो सबूतों को मिटाने के लिए खून से सनी गाडी और मरे हुए लोगों के चिपके हुए मांस को धो डालते हैं। ये हैवानियत की पराकास्ता नही तो और क्या है? प्रजातंत्र की दुहाई देने वाले इस देश में आख़िर ये क्या हो रहा है? नौ साल बीत चुके हैं , इस घटना को । और ये केस घिसट - घिसट के आगे बढ़ रहा था। मीडिया की पहल और स्टिंग आपरेशनों ने इस केस में मदद की। ये बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण रहा की, इसमे बचाव व अभियोजन पक्ष के वकील आर०के०आनन्द(कांग्रेस पार्टी के सदस्य) और ए० यु० खान भी सांठगांठ में संलिप्त रहे। लेकिन अभी जो फैसला आया उसने एक बार फ़िर न्यायपालिका को सर्वोच्च करार दे दिया। हफ्ते भर पहले दिल्ली की एक निचली अदालत ने जाने माने व्यवसायी सुरेश नंदा के तीस वर्षीय बेटे संजीव नंदा को गैर इरादतन हत्या का दोसी ठहराते हुए पाँच साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई। और व्यवसायी राजीव गुप्ता समेत तीन अन्य लोगों को भी दोसी पाया। और दोनों वकीलों को न्याय में बाधा पहुचाने के आरोप में चार महीने की वकालत पर प्रतिबंध लगाया। इस केस के लंबे समय तक चलने की जदोजहद ने एक बार फिर साबित किया की इसमे पैसे पानी की तरह बहाए गए होंगे और रिस्वतों के दौर पे दौर चले होंगे।
आख़िर अमीर बाप की ये बिगडैल संताने कब तक गरीब मासूमों को चीटियों की तरह रौंदती रहेंगी। पैसे के घमंड में चूर होकर ये कुछ भी करती रहे, आख़िर ये हक़ इन्हे किसने दिया? ऐसा ही जेसिका लाल हत्याकांड मामले में हुआ था। वो तो मीडिया का सुक्र्गुजार होना चाहिए नहीं तो इनका वश चले तो ये लोग ग़रीबों को न्यायालय तक भी न पहुचने दे। विशाल भारत का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। लेकिन ये कुछ बिगडैल अमीर जादो ने इसकी चमक धूमिल करने की कोशिस की है। इन्हे सबक लेना चाहिए उन अमीर घरानों की होनहार संतानों से जिन्होंने एक सीमा को बनाए रखते हुए देश का नाम रोशन किया। जिनमे अनिल और मुकेश अम्बानी एवं रतन टाटा जैसे लोग हैं। हमे आशा रखनी चाहिए की न्याय की सर्वोच्च साखा भी इस फैसले को बरकरार रखेगी। क्योंकि ये तो चलन है की यहाँ हार के बाद ये लोग आगे भी अपील दायर करेंगे।
लेकिन हम विश्वास के के साथ यह कह सकते हैं की जेसिका लाल हत्याकांड में दिए गए सही फैसले की तरह इस फैसले का भी सही निर्णय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया जायेगा।

Saturday, August 30, 2008

"बिमारी की इन्तहां हो गई"

एक शख्स जिसे मैंने चंद वर्षों पहले जिन्दगी के इस बगिया में हँसते हुई देखा था। आज वह हमेशा बीमार ,बेजार और मुरझाया नजर आता है। ऐसे सख्स आपको हर गली मौहले में मिल जायेंगे । वे सालों से बिमारी का फ़साना लिए नजर आते हैं। उन्हें बेचारे का मैडल मिल जाता है। ऐसा क्यों ? क्या वे जिन्दगी जीना नहीं चाहते हैं ? ऐसा नहीं है, फिर भी ऐसा क्यों ?
शायद वे जिन्दगी से लड़ने का जज्बा भूल चुके हैं। उन्हें जिन्दगी कीपरेशानियों ने कायर बना दिया है। लेकिन वे ये भूल रहे हैं की जिन्दगी में सफल होने के लिए संघर्षों की राहों से होकर गुजरना पड़ता है।
किसी शायर ने ठीक ही कहा था ‘जिन्दगी जिंदादिली का नाम है, मुर्दा दिल क्या ख़ाक जियेंगे’
एक फिल्मी गाने के बोल ये थे "रुक जाना नहीं तू कहीं हार के , काटों पे चलते मिलेंगे साए बहार के ------"
मानव प्रकृति हमेशा से जुझारू रही है । उसने हर असंभव को सम्भव कर दिखाया। हम चाँद तक पहुचने के बाद अब मंगल और सूर्य तक पहुँचने की बात करते हैं। आख़िर कैसे ? ये हमारे उन नायकों ने कर दिखाया । उन बीमारू मानसिकता को ठेंगा दिखाया , वे लदे संघर्ष किया और आज हम उन्ही नायकों को आदर्श मानकर इन संघर्सों की कठिन राहों से जूझते हुई आगे बढ़ रहे हैं। एवरेस्ट फतह किया,उड़ते हुई पंछियों को देखकर विमान तैयार कर दिए , तैरती हुई मछलियों को देखते हुई पानी के जहाज बना दिए , कई लाइलाज बिमारियों की दवा बना डाली । यहाँ तक की कृत्रिम बारिश का भी जुगाड़ कर लीया। एक धावक उसेन बोल्ट इन ओलंपिक खेलों में इतना तेज भागा की हवा का रुख चीरते हुऐ९.६९ सेकंड की गति से १०० मीटर रेस जित गया। मार्क फेलप्स बचपन में माता –पिता का तलाक; लेकिन वो भी उस तैराक की राहें रोक नहीं पायी। प्रेरणा ली संघर्सों से। इस ओलंपिक में आठ स्वर्ण जीतकर इतिहास रच दिया। जिसमे ६ विश्व रिकार्ड धो डाले । रूस की महिला पोलवाल्टर इब्सियानेवा जो हर प्रतियोगिता में एक विश्व रिकार्ड धो डालती है। आख़िर कैसे ?
ये उनका जज्बा है,जुझारूपन है , संघर्षों से लड़ने की छमता है। उन्होंने जिन्दगी के मानदंड तय किए हैं। जो उन्हें हमेशा विजेता बनाते हैं। क्या आप को याद है बास्केटबाल का माइकल जोर्डन , जो नब्बे के दशक में ऐड्स जैसी गंभीर बिमारी से ग्रस्त हो गया था। लेकिन वो लड़ा इस लाइलाज बिमारी से । आज भी हंसी खुशी जी रहा है। जो दूसरो के लिए मिसाल बन गया है।
मेरे कहने का मतलब है आप लड़िये अपने मैं छायी इन बिमारियों से । अपने जीने का ढंग बदलिए ,जुझारू बनिए। एक दिन आप भी इन बिमारियों की परछाई से बाहर निकल के विजेता बनोगे। लोग देखेंगे आप के अन्दर पैदा हुए एक नायक को। शायद में जब उस गली से गुजरूँ तो उस बगिया में एक हंसता मुस्कराता चेहरा मुझे दिखाई दे ।
लडो खूब लडो , उस गायब परछाई से.
जो तुम पे हावी है, वो जज्बा दिखाओ.
जो तू में से एक विजेता पैदा करे.”

तू हिंदू मैं मुसलमा, मैं हिंदू तू मुसलमा

म्यान में तक्शीम हो चुकी तलवारे एक बार फ़िर बाहर निकल आई है । हर जगह दहसत गर्दी आलम है । कई घर के लाल कब्रों में दफ़न हो रहे हैं , तो कई शमशानों में जल रहे हैं । मानवता दफन हो रही है ,इन चंद जालिम लोगों के फरमान से .मजहबी दीवारें खड़ी हो गई है। हर इंसान का अपना कोई वजूद न रहा वो सिमट के रह गया इन जज्बाती मजहबी समूहों मैं । गले मिलने की रश्म आज खाकसार हो रही है। आज सिर्फ़ बाकी रह गया तो तू हिंदू मैं मुसलमा , मैं हिंदू तू मुसलमा। कहाँ छुट गए वो रश्मो रिवाज़ , वो रिश्ते , आज सब कुछ ख़त्म , खत्म और खाक हो रहा है । आज हमारे लिए वो रिश्ते वो आदावार्जी सब पीछे छुट गए हैं। आज भावनात्मक रूप से हम अपने धर्मों के लिए जंग लड़ने मैं व्यस्त हैं । इससे कुछ नहीं मिलेगा शायद नहीं ? हम सब जानते हैं , इतिहास गवाह है। पर फ़िर भी हम अनजान बनकर लदे जा रहे हैं। क्या आज से १००-१५० साल बाद आप जिन्दा रहोगे शायद कोई भी नहीं ? फ़िर क्यों हम अपनी भावी पीढी के लिए द्वेष का माहौल तैयार कर रहे हैं ।

आज जमू-कश्मीर जल रहा है । कोई भी एक इंच पीछे हटने को राजी नहीं। बम बिस्फोटों से कभी मुंबई ,कभी अहमदाबाद ,कभी बंगलुरु, तो कभी कोई और सहर जल रहा है। हर साल मजहबी दंगे भड़क रहे हैं। हम क्यों इन लाल सुर्ख ध्बों की होली खेल रहे हैं। क्यों हम इन आकाओं , गुरुओं के फरमान पर चल रहे हैं। क्या किसी धर्म मैं ये लिखा है की आप दूसरो के खून से होली खेल कर महान बन जाओगे, या अलाह, भगवान तुम पे खुश होकर मेहरबानी करेंगे; शायद कभी नहीं। क्योंकि किसी भी धर्म में ये नहीं लिखा है की बुरे कर्मों का फल अच्छा मिलता है।

तो फ़िर तुम अनजान बन कर क्यों इन राहों पे कांटे बो रहे हो ,तुम क्यों अपने वजूद से दूर हो रहे हो ,क्यों तुम्हे खून अपना पराया नजर आ रहा है। खून तो सबका लाल है। हर किसी के माँ- बाप ,भाई -बहन हैं। क्या तुम्हे हंसता - खेलता जीवन अच्छा नहीं लग रहा है।

इन सब सवालों के जवाब तलाशोगे ,तो शायद ये मजहबी दीवारे टूट जाए। हर कोई खुसहाल नजर आएगा । तब तुम्हे फ़िर से अपना वजूद नजर आएगा। और आपके कानो में एक आवाज हमेशा जिन्दा रहेगी- ------

''हिंदू-मुस्लिम ,सिख- इसाई आपस में है भाई -भाई ''

Thursday, August 21, 2008

आदम खोर बाघों ,गुलदारों का कुशल शिकारी ---- जिम एडवर्ड कार्बेट

( उदय सिंह रावत )

जिम एडवर्ड कार्बेट को जिम एडवर्ड कार्बेट या कारपिट साहब के नाम से भी जाना जाता है । इन्हें कुमाओं एवम गढ़वाल में आदमखोर बाघ एवम गुलदारों के सिकारी के रुप में प्रसिधी मिली थी। इनका जन्म २५ जुलाई १८७५ को नैनीताल में पिता क्रिस्टोफर कार्बेट माता मेरी जैम के घर में हुआ था। इनके पिता नैनीताल में पोस्टमास्टर थे। इनकी एजूकेशन फिलान्दर्ष स्मिथ कॉलेज नैनीताल में मेट्रिक तक हुई । कार्बेट का ग्रीष्मकालीन आवास - गर्नी हाउस नैनीताल और शीतकालीन आवास -कालाढूंगी था। जिम कार्बेट ने बिहार के मोकामा घाट में रेलवे विभाग में लकडी के आपूर्ति हेतु युल इंसपेक्टर की नौकरी की । फ़िर सहायक इंसपेक्टर मास्टर ,स्टोर कीपर ,एवं श्रमिक ठेकेदारी की । १९१४ में कुमाओं से ५०० श्रमिक फ्रांस ले गए । १९२० में रेलवे से त्याग पत्र दिया । १९२० से १९४४ तक नैनीताल नगरपालिका सदस्य भी रहे । १९४४ में ले ० कर्नल के रूप में सैनिकों के जंगल युद्ध के प्रशिक्षक रहे । जिम कार्बेट को तत्कालीन सरकार के द्बारा ''केसर ऐ हिंद'' की उपाधि से समानित किया गया । सिकारी के रूप में जिम कार्बेट ने दस वर्ष की उमर में गुलदार को मारा । '' पवल गढ़ का राजकुमार '' नामक शेर का १९३४ -३५ में सिकार करने के बाद केवल आदमखोर शेरो एवं गुलदारों को ही मारा । १९१८-१९२६ तक आठ वर्षों तक रुद्रप्रयाग के आदम खोर गुलदार जिसने रुद्रप्रयाग के आस-पास के १२५ लोगों को खा लिया था उससे मुक्ति दिलाने हेतु गुलाबराय में उसका सिकार किया था ।

जिम कार्बेट द्वारा लिखित पुस्तक -------- (१) मेंन ईटर्स ऑफ़ कुमायूं (१९४५), (२) मेंन ईटिंग लेंमपर्द ऑफ़ रुद्रप्रयाग , (३) माय इंडिया ,(४)जंगल लोर ,(५) टेम्पल टाइगर (६) ट्री टोप्स ।

इसके अलावा जिम कार्बेट ने भारत अफ्रीका के वनय जीवों पर एक फ़िल्म भी बनाई जो लन्दन के नेचुरल हिस्ट्री मु जियम में रखी गई है। एक कुशल सिकारी के साथ -साथ इन्हें वन्य जीव संरखछन के छेत्र में भी जाना जाता है । इनकी पुस्तक ''मेंन इटर्स ऑफ़ कुमायूं'' ने इन्हें विश्व विख्यात बना दिया । कुमायूं छेत्र में इन्हें विशेस रूप से जाना जाता है । १९ अप्रैल १९५५ को केन्या में दिल का दौरा पड़ने से इनका निधन हो गया । कार्बेट नेशनल की सीमा निर्धारण में उलेखनीय योगदान देने के कारण इस पार्क का नाम इनके मरने के बाद इनके नाम से इसे प्रशिधि प्राप्त हुई । जिम कार्बेट तुम हमेशा हमें याद आते रहोगे चाहे एक सिकारी के रूप में तुम्हारे दिए योगदान का जिक्र हो या एक वन्य जीब प्रेमी हर रूप में तुम याद आओगे ।

खिलाड़ी पदक और एक कदम का फासला
कुछ खिलाड़ी जिनके पावं पदक से एक कदम पहले आकर फिसल गए। ये बड़ा निराशाजनक रहा । नहीं तो हमारे पदक जितने का क्रम शायद कुछ और होता। सायना नेहवाल (बैड़मिंटन),लिएंडर पेस और महेश भूपति (टेनिस ),अखिल कुमार और जितेंदर (मुकेबाजी) ,योगेश्वर दत (कुश्ती) ये सारे खिलाड़ी पदक से एक कदम पहले यानि क्वार्टर फाइनल मुकाबलों में हारे हैं । इनके हौसले की दाद देनी होगी ,ये लडे और यूँ कहें बहादुरी से लडे । ये शान से हारे कोई गम नहीं । क्योंकि ओलंपिक में होता ही ऐसा है । यहाँ पर आप को नाक आउट मुकाबले खेलने होते हैं । रिटेक करने का चांस ही नहीं होता है । एक गलती की और पदक आपके हाथ से फिसला ।
राज्यवर्धन राठोड जो की पिछले ओलंपिक में रजत पदक जीतकर लाये थे । लेकिन इस ओलंपिक में कुछ चंद घंटों के खराब फार्म ने चार साल की मेहनत बेकार कर दी ।
यही है एक पदक विजेता और हारे हुए खिलाड़ी का अन्तर ध्यान भंग हुआ नहीं की पदक आप के हाथ से फिसला नहीं। फ़िर चाहे कई वर्ष की मेहनत हो या एक दिन की सब बेमजा हो जाती है।
वहीँ अभिनव बिंद्रा के पदक जितने के सिलसिले में एक और भारतीय सुशिल कुमार जिन्होंने कुस्ती में कांसे का पदक जीता है, जुड़ गए हैं। इतिहास में पहली बार भारत दो पदकों के साथ खडा है। वहीँ तीसरा पदक भी तय हो गया है। मुकेबाज़ विजेंदर भी सेमीफाइनल में पहुंच गए हैं।
''शाबास मेरे शेरो ''
क्वार्टर फाइनल में हारे हुए खिलाड़ियों को भी सरकार अगर कुछ इनामी राशिः प्रदान करे तो इससे इन हारे हुए खिलाड़ियों का भी उत्साह बढेगा । और वे भी अच्छे प्रदर्शन के लिए प्रेरित होंगे । अखिल कुमार ने ठीक ही कहा था की '' में स्वर्ण जीतकर लाऊँगा मेरे इन शब्दों को याद रखना और अगर मुझसे कोई खता हो गई (हार गया ) तो मुझे भूल न जाना '' । तो हमें भी इन खिलाड़ियों के प्रदर्शन को भूलना नहीं चाहिए , जिन्होंने भारतीयों के जज्बे और होसले का प्रदर्शन कर दर्शकों की तालियाँ बटोरी। एक खराब प्रदर्शन से भारतीय जनता को इनकी आलोचना करने का हक नहीं है । बल्कि वक्त है इनके वर्षों की मेहनत जो की कुछ पलों में बेकार गई , उनके इस गम को कुछ कम करने के लिए इन्हें गले लगाने का और उनका वीरों जैसा स्वागत करने का । नहीं तो हमारे देश में होता यह है की जीते तो कंधे पर चढा देते हैं । और हारे तो दुत्कार मिलती है। पर आशा है की शायद ---------------- इस बार हम वो काम न करें । जिनसे खिलाड़ियों का दिल टूटता है।

Sunday, August 17, 2008

बेमिसाल , लाजवाब प्रदर्शन

(मार्क फेलप्स ----- गोल्डन मशीन )

वो जो भी कहता है , वो कर दिखाता है। वो ख़ुद पर यकीं रखता है । माता-पिता के तलाक ने उसे बचपन में ही जुझारू बना दिया। वो आत्म विश्वास से लबरेज और जुनूनी सख्स है । या यूँ कहें ये उसकी खेल के प्रति दीवानगी है । वो जब स्वीमिंग के लिए उतरता है तो शार्क जितना पावरफुल हो जाता है । इस शख्स ने रिकार्डों की झडी लगा दी है । मानो जीत उसकी मुठी में कैद हो । ---- जी हाँ लोगों ये है '' द ग्रेट स्विम किंग ---- मार्क फेलप्स । इस अमेरिकन तैराक ने बीजिंग ओलंपिक में रिकार्डों और पदकों की झड़ी लगा दी है । मार्क स्पित्ज़ के रिकार्ड ७ सोने के पदकों का रिकार्ड तोड़ डाला । और उन्होंने देश के लिए इस ओलंपिक २००८ में ८ स्वर्ण जीतकर एक इतिहास रच दिया।

कार्ल लुईस , पावो नुर्मी और स्पित्ज़ जैसे महान खिलाड़ियों की पंक्ति में ख़ुद को भी ला खडा किया। ओलम्पिक में १४ स्वर्ण ( एथेंस के ६ और बीजिंग ओलंपिक के ८ ) जीतने वाले वर्ल्ड के पहले खिलाड़ी बन गए हैं।

रिकार्ड पे रिकार्ड वाह क्या बात है ----- तुझे सलाम ''मार्क फेलप्स ''

सही मायनो में तू ही तो है -------------

'' सिंह इज किंग '''

सा ----वधान फुल्टू बकवास
माहौल गर्म है , जूतम पैजार जारी है।
हर मोहले में नेता पैदा हुआ है ।
हर चूल्हे में चुनावी आग है , बंद बोतल आजाद है ।
क्योंकि भाइओ उत्तराखंड में चुनाव जारी है ।
गांव -गांव के घोटाले गुलज़ार हैं ।
कुछ नेता हरे -हरे नोटों की बरसात कर रहे हैं ।
लग रहा है नेताजी रिजर्व बैंक से पधारे हों ।
नेताजी को हर घर मन्दिर और जनता भगवान नजर आ रही है।
नेताजी सामाजिक जंतु नज़र आ रहे हैं ।
क्योंकि भाइयो उत्तराखंड में चुनाव जारी है।
अगले चुनाव में अपुन को भी खडा होने का है ।
क्योंकि भाई ---- ई उत्तराखंड का चुनाव है ।
नेताजी अपुन तेरे को टिप्स देने का है ।
थोड़ा बेशर्म होने का और खूब नोट -शोट देने का तभी तो वोट मिलेंगा ना -----।


Friday, August 15, 2008

ज्ञान की खोज
( अन्तिम छोर ------ --------? सायद नहीं )

ज्ञान की महिमा अपरम्पार है यह हमारे पुरानो में लिखा गया है। लेकिन ये कहाँ जाकर खत्म होगा
----- सायद पता नहीं। ज्ञान एक ऐसी डिक्सनरी है; जिसमें शब्दकोश जुड़ते ही जाते हैं। आदम युग
से अब तक कई आविस्कर हुए और उनसे हर बार एक नया ज्ञान निकल कर आया। और आज हम लोग चाँद
एटम बम और कंप्यूटर युग तक पहुंच गए। फिर भी हमारी ये ज्ञान प्राप्ति की खोज अपने अन्तिम निष्कर्ष
तक नहीं पहुंच पाई। प्रारम्भ से मानव प्रकृति जिज्ञासु रही है ज्ञान की खोज मैं। और हमारे इसी ज्ञान
की जिज्ञाषा ने हमें पूरे ब्रह्मांड में रहने वाले अन्य जीवों से कोसों आगे पहुंचा दिया है.
आज के समय की बात करें तो कोई व्यक्ति विशेष ये नहीं कह सकता है की मैं दुनिया का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति हूँ। मैं कहूँगा वो ही इस दुनिया का सबसे मुर्ख इंसान है, क्योंकि ब्रह्मांड मैं इतना ज्ञान भरा
पडा है की हमारी कई करोडों पीडी यां भी खोजती रहे तो भी हम उस के अन्तिम छोर तक नहीं पहुंच पाएंगे। हमें
तो
अभी उस ज्ञान के भंडार का बाल्टी भर पानी जितना हिस्सा प्राप्त हुआ है। आधुनिकरण के इस दौर मैं ज्ञान के
भंडार को देखते हुई इसे छेत्र विसेस मैं बाँट दिया गया है। जैसे डाक्टर, इंजिनियर विज्ञानिक -----इन सबका अपना
अपना छेत्र होता है। फिर इनके अंदर भी कई छेत्र हैं। मतलब ज्ञान की खोज मैं एक व्यक्ति विसेस नहीं है. पूरे वर्ल्ड
के लोग इसकी खोज मैं अपने-अपने फिल्ड मैं कार्यरत हैं। कोई किसी को चैलेन्ज नहीं कर सकता है.एक बच्चा भी किसी
किसी बुजुर्ग को ज्ञान दे सकता है। ज्ञान की महिमा इतनी निराली है की आप हर किसी से कोई न कोई ज्ञान ले भी सकते हो और
वो भी आप से कुछ न कुछ लेके ही जाएगा। ये भंडार है ही ऐसा जितना बाँटोगे उसका दुगना ही प्राप्त करोगे.इसमें इन्वेस्ट
करोगे तो कभी घाटे में नहीं रहोगे.
रामायण मैं जब रावन अपनी अन्तिम सांसे गिन रहा था तो भगवान राम ने लक्ष्मण जी को कहा था की जाओ भाई ; रावन जैसे महाज्ञानी से कुछ ज्ञान प्राप्त करो।
कहने का मतलब ये है की आप को अगर एक बुरे आदमी की संगत भी मिल जाए तो भी आप उसके बुरे
विचारों को छोड़ जो अच्छी बातें उसमें है उसको प्राप्त करो। ज्ञान को लेते समय सकारात्मकता का परिचय हमेशा रखना चाहिए.बुरा ज्ञान छन भर का होता है। और एक अच्छा ज्ञान हमेसा फलता फूलता ही है। क्योंकि यह लोक कल्याण के लिए बनता है। हमें एकअच्छे ज्ञान की और हमेशा अग्रसर रहना चाहिए।

''क्योंकि भला ज्ञान निर्विवाद रूप से उतम होता है''
उफ़ ये क्या हो गया----------
(मिशन बीजिंग ओलंपिक---------? ख्वाब अधूरा रह गया--------------)

वर्षों की मेहनत चंद मिनटों में जार-जार हो गई । तोड़ के रख दिया, कोई सुनने वाला नहीं दिल में एक टीसबनकर रह गई । अरबों लोगों के विश्वास का बोझ जो चंद पलों में विस्वासघात बन गया . हीरो से खलनायक बन गये । यही कहानी है------- हमारे उन खिलाड़ियों की जो बड़ी आशा लेकर बीजिंग ओलंपिक गए थे। जनता और मिडिया आरोप- प्रत्यारोप करते नहीं थक रहे हैं। लोग ये भूल रहे हैं की वो भी आप जैसे इंसान हैं।
एक हारे खिलाड़ी का दर्द यूँ बयाँ होता है---------- ड्रेसिंग रूम सुनसान; हर चीज दुश्मन नजर आती है। आसुओं की धार बह रही है दिलासा देने वाला कोई नहीं, अपना दर्द किससे बयान करें, खाना पीना सब बंद, अपना गुस्सा सामने रखी चीजों पर निकल रहे हैं, खेल से नफरत होने लगती है, कदम लड़खडाने लगाते हैं, खिलाड़ी इस मौके पर पागलों की तरह हरकतें करने लगता है.
यह खेल चीज ही ऐसी है;इसमे आपको अपने प्रदर्शन पर तो ध्यान देना होता है. साथ मैं विपक्ष भी होता है। तो साथ मैं जनता के विश्वासों का भी बोझ होता है। इसमें जिसने धेर्य को बनाये रखा और जीत प्राप्त की वो सिकन्दर और हारे हुई खिलाड़ी आलोचना का शिकार बनते हैं। हारे हुए खिलाड़ियों की वो सब बातें याद रखी जाती है; जो खेल से पहले घटित होती है। और फिर देखिये मीडिया का तमाशा हर चीज खोल खोलकर रख देते हैं। अगर खिलाड़ २७ - २८ पर कर गया तो उसे बुजुर्ग खिलाड़ी का तमगा दे दिया जाता है। फिर फिटनेस से लेकर तमाम तरह के आरोपों - प्रत्यारोपों की झडी लगा दे देते हैं। लेकिन वो ये भूल जाते हैं की खिलाड़ी कभी बुजुर्ग नहीं होता है। हाँ प्रदर्शन जवान या बुजुर्ग हो सकता है। खिलाड़ी भी तो इंसान है वो कोई भगवान तो है नहीं की गोल्ड बोले तो गोल्ड ही जीत कर लायेंगे ।
इस देश में सब नेताओं सी बातें करते हैं। लोग ख़ुद क्यों नहीं मैदाने में आते हैं। ओलंपिक तक पहुचने की राह इतनी आसन नहीं है। कई मापदंड तय करने पड़ते हैं, तब जाकर यह सपना साकार होता है। ओलंपिक में विश्वः के देशों के साथ अपने झंडे के नीचे फ्लैग मार्च करना यह भी एक सपने सरीखा होता है।
तभी तो कहा गया है की---------

'' खेल मैं हार -जीत तो होती रहती है, लेकिन उसमें भाग लेना यह सबसे बडी जीत है ''

Thursday, August 14, 2008


अर्जुन महान के इस देश में एक और अर्जुन ----- अभिनव बिंद्रा
''गर हौसले हो बुलंद तो आन्धिओं में भी चिराग जलते हैं''
इस कहावत को सच साबित कर दिखाया अभिनव बिंद्रा ने लोगों ने देखा महान धनुर्धर
अर्जुन के इस देश में एक और अर्जुन को इतिहास रचते हुए । १० मीटर एयर राइफल में चीन के कीनन झू को हराकर अभिनव बिंद्रा ने देश को बीजिंग ओलंपिक २००८ में पहला गोल्ड मैडल दिलाया। व्यक्तिगत
स्पर्धा मैं प्रथम गोलडमैड्लिसट बन कर उन्होंने एक इतिहास रच दिया । पिता ए एस बिंद्रा
और माँ बबली को अपने बेटे पर गर्व है वे फूले नहीं स
माँ रहे हैं। अभिनव बिंद्रा ने अपने
जुझारूपन से इस सपने को हकीकत मैं बदल दिया है । और आने वाले खिलाड़ी उनको आदर्श मानकर
उनसे प्रेरणा लें इसमें किसी को कोई शक नहीं होना चाहिये । १९८० के बाद सोने के लिए tरस रहे
भारत देश के इस सुखाग्रसत अभियान को ख़तम कर एक नया आयाम रच दिया
कई राज्यों ने उनकी इस उपलब्धि पर पुरस्कारों घोसना की है यह सही भी है इससे खिलाड़ी
का होसला बढ़ता है आज हर गली मैं बिंद्रा - बिंद्रा का शोर है।
''हमें गर्व है देश के इस होनहार सपूत पर''