Friday, August 15, 2008

उफ़ ये क्या हो गया----------
(मिशन बीजिंग ओलंपिक---------? ख्वाब अधूरा रह गया--------------)

वर्षों की मेहनत चंद मिनटों में जार-जार हो गई । तोड़ के रख दिया, कोई सुनने वाला नहीं दिल में एक टीसबनकर रह गई । अरबों लोगों के विश्वास का बोझ जो चंद पलों में विस्वासघात बन गया . हीरो से खलनायक बन गये । यही कहानी है------- हमारे उन खिलाड़ियों की जो बड़ी आशा लेकर बीजिंग ओलंपिक गए थे। जनता और मिडिया आरोप- प्रत्यारोप करते नहीं थक रहे हैं। लोग ये भूल रहे हैं की वो भी आप जैसे इंसान हैं।
एक हारे खिलाड़ी का दर्द यूँ बयाँ होता है---------- ड्रेसिंग रूम सुनसान; हर चीज दुश्मन नजर आती है। आसुओं की धार बह रही है दिलासा देने वाला कोई नहीं, अपना दर्द किससे बयान करें, खाना पीना सब बंद, अपना गुस्सा सामने रखी चीजों पर निकल रहे हैं, खेल से नफरत होने लगती है, कदम लड़खडाने लगाते हैं, खिलाड़ी इस मौके पर पागलों की तरह हरकतें करने लगता है.
यह खेल चीज ही ऐसी है;इसमे आपको अपने प्रदर्शन पर तो ध्यान देना होता है. साथ मैं विपक्ष भी होता है। तो साथ मैं जनता के विश्वासों का भी बोझ होता है। इसमें जिसने धेर्य को बनाये रखा और जीत प्राप्त की वो सिकन्दर और हारे हुई खिलाड़ी आलोचना का शिकार बनते हैं। हारे हुए खिलाड़ियों की वो सब बातें याद रखी जाती है; जो खेल से पहले घटित होती है। और फिर देखिये मीडिया का तमाशा हर चीज खोल खोलकर रख देते हैं। अगर खिलाड़ २७ - २८ पर कर गया तो उसे बुजुर्ग खिलाड़ी का तमगा दे दिया जाता है। फिर फिटनेस से लेकर तमाम तरह के आरोपों - प्रत्यारोपों की झडी लगा दे देते हैं। लेकिन वो ये भूल जाते हैं की खिलाड़ी कभी बुजुर्ग नहीं होता है। हाँ प्रदर्शन जवान या बुजुर्ग हो सकता है। खिलाड़ी भी तो इंसान है वो कोई भगवान तो है नहीं की गोल्ड बोले तो गोल्ड ही जीत कर लायेंगे ।
इस देश में सब नेताओं सी बातें करते हैं। लोग ख़ुद क्यों नहीं मैदाने में आते हैं। ओलंपिक तक पहुचने की राह इतनी आसन नहीं है। कई मापदंड तय करने पड़ते हैं, तब जाकर यह सपना साकार होता है। ओलंपिक में विश्वः के देशों के साथ अपने झंडे के नीचे फ्लैग मार्च करना यह भी एक सपने सरीखा होता है।
तभी तो कहा गया है की---------

'' खेल मैं हार -जीत तो होती रहती है, लेकिन उसमें भाग लेना यह सबसे बडी जीत है ''

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